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________________ ३१२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ.४ चावांकों का मत है । इसीलिए वे आगम या अनुमानको प्रमाण नहीं मानते । चार्वाक आचार्य अविद्धकर्ण ने इस विषय का विस्तृत विचार किया था ऐसा बौद्ध ग्रन्थों के उद्धरणों से प्रतीत होता है। सर्वज्ञ तथा आगम ये दोनों परस्पराश्रित हैं यह दोष मीमांसकों ने भी उपस्थित किया है । किंतु जैन मत से यह कोई दोष नहीं क्यों कि सर्वज्ञ तथा आगम दोनों की परम्परा अनादि है- एक सर्वज्ञ आगम का उपदेश करता है, उस उपदेश से प्रेरणा पाकर दूसरा जीव सर्वज्ञ होता है इस प्रकार की परम्परा अनादि है३ । पदार्थों का ग्रहण करना ( उन्हें जानना) यह आत्मा का स्वभाव है अतः इस में बाधा दूर होते ही वह सब पदार्थ साक्षात् जानता है इस अनुमान का उल्लेख लेखक ने आगे भी किया है (पृ. ३५)। प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र के शब्द ही प्रायः यहां उद्धृत हुए है। ___ पृष्ठ ५–सूक्ष्म, अन्तरित व दूर के पदार्थ अनुमान के विषय होते हैं अतः वे किसी न किसी द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञात हुए होते हैं-यह अनुमान भी आगे पुनः उद्धृत किया है (पृ.३६) तथा इसपर चार्वाक द्वारा उपस्थित आपत्तियों का वहां परिहार किया है । यह अनुमान समन्तभद्र की आप्तमीमांसा से लिया गया है। पृष्ठ ६–सर्वज्ञ के अस्तित्व में बाधक प्रमाण नही हैं इस का आगे विस्तार से विवरण दिया है ( परि. १३-१४)। यह तर्क अकलंक ने सिद्धिविनिश्चय में प्रस्तुत किया है । सर्वज्ञ ईश्वर जगत्कर्ता है यह मत चार्वाकों के समान जैनों को भी अमान्य है, इस की चर्चा आगे सात (परि. २०-२६) परिच्छेदों में की है। वर्तमान काल तथा प्रस्तुत प्रदेश के समान सभी समयों व प्रदेशों में सर्वज्ञ नहीं है-इस अनुमान का उत्तर आगे दिया है (पृ. ६९-७१)। इस सम्बन्ध में मोमांसक भी चार्वाक का अनुसरण करते हैं। १) प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति टीका पृ.१९ तथा २५, तत्त्वसंग्रह पंजिका का. १४८२. २) नर्ते तदागमात् सिद्धयेत् न च तेन विनागमः ( मीमांसा श्लोकवार्तिक-चोदनासूत्र श्लो. १४२.) ३) सर्वज्ञागमयोः प्रबन्धनित्यत्वेन नित्यत्वोपगमात् कुतस्तत्र एवमन्योन्याश्रयणं स्यात् (सिद्धिविनिश्चय ८-४ ). ४) न्यायकुमुदचन्द्र पृ.९१ कश्चिदात्मा सकलार्थसाक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् । ५) आप्तमीमांसा का.५: सूक्ष्मान्तरितदुरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचित् यथा। अनुमेयत्वतोऽन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥ ३ सिद्धिविनिश्चय ८-६: अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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