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________________ - ९०] बौद्धदर्शनविचारः ननु यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता । इति सविकल्पकबुद्धिजनकत्वेन तदस्तित्वं निश्चीयत इति चेन्न। तज्जनकत्वेन आत्मान्तःकरणेन चक्षुरादीनामेव निश्चितत्वात् । तस्मात् निर्विकल्पकप्रत्यक्षावेदक प्रमाणाभावात् तन्नास्तीति निश्चीयते। तथा वृक्षादिनाम्नां स्कन्धत्वं जैनमते एव नान्यत्र संभाव्यते। तन्मते पौद्गलिकत्वेन शब्दस्य समर्थितत्वात् । तथा संस्काराणामप्यात्मगुणत्वेन प्रागेव समर्थितत्वात् स्कन्धत्वं नोपपनीपद्यते । एवं सौगतोक्तपञ्चविज्ञानकायानामपि विचारासहत्वात् तन्मतेऽपि तत्त्वज्ञानाभावान्मोक्षो नास्तीति निश्चीयते। [ ९०.. निर्वाणमार्गविवरणम् । ] अथ मतम्-दुःखसमुदयनिरोधमार्गणा इति चत्वारः पदार्था एव मुमुक्षुभितिव्याः। तत्र सहजशारीरमानसागन्तुकानि दुःखानि । तत्र 'जिस विषय में यह (निर्विकल्प बुद्धि ) इस ( सविकल्प बुद्धि ) को उत्पन्न करती है उस विषय में ही वह प्रमाण होती है। इस वचन के आधारपर बौद्धों का कथन है कि सविकल्प बुद्धि के जनक के रूप में निर्विकल्प बुद्धि का अस्तित्व मानना चाहिए। किन्तु सविकल्प झान के उत्पादक आत्मा, अन्तःकरण, चक्षु आदि इन्द्रिय आदि माने ही गये हैं -फिर अलग निर्विकल्प ज्ञान उत्पादक मानने की क्या जरूरत है ? अतः निर्विकल्प ज्ञान के विषय में बौद्ध मत निराधार ही है। इस प्रकार विज्ञान स्कन्ध का विचार किया । संज्ञा स्कन्ध की कल्पना जैन मत में ही सम्भव है क्यों कि हमने शब्द को पुद्गल-स्कन्ध माना है । संस्कार आत्मा के ही विशेष गुण हैं यह पहले स्पष्ट किया है अतः उन्हें स्कन्ध कहना उचित नही । इस प्रकार बौद्धों की पांच स्कन्धों की कल्पना अयोग्य सिद्ध होती है। ९० निर्वाण मार्गका विवरण-अब बौद्ध मत के निर्वाण-मार्ग का विचार करते हैं । उन का कथन है कि दुःख, समुदय, निरोध तथा १ थत्रैव वस्तुनि निर्विकल्पकं कर्तृभूतं सविकल्पबुद्धिं जनयेत् । २ निर्विकल्पकस्या. स्तित्वं । ३ मयि चक्षुर्वर्तते रूपान्यथानुपपत्तेः।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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