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________________ २५० विश्वतत्त्वप्रकाशः [७६तस्मात् सालोक्यमुक्तिर्भवति । तपःस्वाध्यायानुष्ठानं क्रियायोगः। तत्रोन्मादकामादिव्यपोहार्थम् आध्यात्मिकादिदुःखसहिष्णुत्वं तपः। प्रशान्तमन्त्रस्येश्वरवाचिनोऽभ्यासः स्वाध्यायः। तदुभयमपि क्लेशकर्मपरिक्षयाय समाधिलाभार्थ चानुष्ठेयम् । तस्मात् क्रियायोगात् सारूप्यं सामीप्यं वा मुक्तिर्भवति । विदितपदपदार्थस्येश्वरप्रणिधानं शानयोगः परमेश्वरतत्स्वस्य प्रबन्धेनानुचिन्तनं पालोचनमीश्वरप्रणिधानम्। तस्य योगस्य यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि । तत्र देशकालावस्थाभिरनियताः पुरुषस्य शुद्धिवृद्धिहेतवो यमाः अहिंसाब्रह्मचर्यास्तेयादयः। देशकालावस्थापेक्षिणः पुण्यहेतवः क्रियाविशेषाः नियमाः देवार्चनप्रदक्षिणासंध्योपासनजपादयः। योगकर्मविरोधिक्लेशजयार्थचरणबन्ध आसनं पद्मकस्वस्तिकादि । कोष्ठयस्य वायोः गतिच्छेदः प्राणायामः रेचकपूरककुम्भकप्रकारः शनैः शनैरभ्यसनीयः। समाधिप्रत्यनीकेभ्यः समन्तात् स्वान्तस्य व्यावर्तनं प्रत्याहारः। चित्तस्य देशबन्धो धारणा। इस से सारूप्य या सामीप्य मुक्ति मिलती है। इन में उन्माद, कामविकार आदि दूर करने के लिए विविध दुःख सहने को तप कहा है तथा ईश्वरवाचक शान्त मन्त्र के अभ्यास को स्वाध्याय कहा है। इन से क्लेश और कर्म का क्षय होकर समाधि प्राप्त होती है । पद और पदार्थ को समझ कर ईश्वर का चिन्तन करना ज्ञानयोग है । इस योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि । पुरुष की शुद्धता बढाने के लिए देश तथा काल की मर्यादा को न रखते हुए अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अचौर्य आदि व्रत धारण किये जाते हैं - ये ही यम हैं। पुण्य प्राप्ति के लिए विशिष्ट प्रदेश तथा समय में मर्यादित क्रियाओं को नियम कहा है – देवपूजा, प्रदक्षिणा, सन्ध्याउपासना, जप आदि इस के प्रकार हैं। योगक्रिया में बाधक थकान को जीतने के लिए अवयवों का विशिष्ट आकार बनाना आसन कहलाता है - पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि इसके प्रकार हैं। कोठे के वायु की गति रोकना प्राणायाम है - इसके तीन प्रकार हैं - रेचक, पूरक तथा कुम्भक । इन का धीरे धीरे अभ्यास करना होता है । मन को समाधि के १ आलोकस्य भावः आलोक्यम् आलोक्येन सह वर्तमाना सालोक्या। २ समानरूपस्य भावः सारूप्यम् । ३ मर्यादारहिताः । ४ क्रोधादिभ्यः ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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