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________________ २३३ -७०] दिगद्रव्यविचारः वाकाशद्रव्यस्य उदयास्तपर्वतायुपाधिभेदेन पूर्वपश्चिमाद्याभिधानप्रवृत्ती किं न जाघटयते येन दिग्द्रव्यं परिकल्प्येत । ननु दिग्द्रव्यसद्भावे मानसप्रत्यक्षं प्रमाणं तेन निश्चितत्वात् परिकल्प्यत इति व्योमशिवः प्रत्याचष्टे । सोऽप्यतत्वज्ञ एव । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नतद्विशिष्टात्मव्यतिरिक्तपदार्थानां मानसप्रत्यक्षत्वाभावात् । ननु स्वप्ने बुद्धयादिपदार्थातिरिक्तानामपि मानसप्रत्यक्षत्वं दृश्यत इति चेत् तदस्त्येव दोषोपहतेन्द्रियान्तःकरणैरुत्पन्न मिथ्याज्ञानेन अविद्यमानपदार्थानामपि प्रत्यक्षत्वम् । तथा चोक्तम् कामशोकभयोन्मादचोरस्वप्नाद्युपप्लुताः । अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ।। [ प्रमाणवार्तिक ३- २८३ ] ___ इत्यसत्यानां दोष दूषितेन्द्रियान्तःकरणैः प्रत्यक्षत्वं विद्यत इव केशोण्डुकादिवत् । सत्यानांमध्ये बुद्धयादीनामेव मानसप्रत्यक्षत्वं नान्येषामिति उचित नही । यदि पूर्व-पश्चिन आदि भेद सूर्योदय की अपेक्षा से ही हैं तो वे आकाश के ही भेद मानने में क्या हानि है ? मानस प्रत्यक्ष से दिशा द्रव्य का अस्तित्व निश्चित होता है-यह व्योमशिव आचार्य का कथन है। किन्तु यह उचित नही । मानस प्रत्यक्ष से आत्मा और उस के विशेष गुणों-बुद्धि आदि का ही ज्ञान होता है, दिशा आदि का नही । स्वप्न में आत्मा और बुद्धि आदि से भिन्न पदार्थों का भी मानस प्रत्यक्ष से ज्ञान होता है किन्तु यह ज्ञान मिथ्या होता है । सदोष इन्द्रिय और अन्तःकरण से उन पदार्थों का, भी ज्ञान होता है जो विद्यमान नही होते- यह मिथ्या ज्ञान होता है। कहा भी है 'काम, शोक, भय, उन्माद, चोर, स्वप्न आदि के कारण दूषित होने पर जो नही हैं वे पदार्थ भी सामने रखे से दिखाई देते हैं । ' किन्तु मानस प्रत्यक्ष से जो सत्य ज्ञान होता है वह आत्मा और उस के गुणों का ही होता है । सिर्फ अपने ग्रन्थों में किसी शब्द को सुनने से उस प्रकार के पदार्थ का मानस प्रत्यक्ष मानें तब तो ' यह वन्ध्या का पुत्र खरगोश १ आचार्यः । २ बुद्धयादयः षड् मानसप्रत्यक्षाः तथा बुद्धयादिविशिष्ट आत्मा च मानसप्रत्यक्षः । ३ हस्त्यादीनाम् । ४ बाधिताः।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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