SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५७चक्षुर्वत् । अथ अनित्यत्वमसिद्धमिति चेन्न । अनित्यं मनः 'ज्ञानकरणत्वात् दुःखत्वात् इन्द्रियत्वात् चक्षुर्वदिति तत्सिद्धेः। अदृष्टं वा न मनोविशेषणम् आत्मविशेषगुणत्वात् प्रयत्नवत् सुखदुःखनिमित्तकारणत्वात् इन्द्रियविषयवत् । वोतं करणं न देहान्तरमेति ज्ञानकरणत्वात् दुःखत्वात् इन्द्रियत्वात् अनित्यत्वात् चक्षुर्वत् । अदृष्टं वा स्वयं देशान्तरं न गच्छति निष्क्रियत्वात् निष्क्रियद्रव्याश्रितत्वात् अद्रव्यत्वात् गुणत्वात् बुद्धिवत् । अथ अदृष्टस्य गमनाभावेऽपि सर्वत्र विद्यमानत्वात् तत्र तत्र फलजनकत्वमिति चेत् न । नादृष्टं स्वाश्रयव्याप्यवृत्ति विभुविशेषगुणत्वात् आत्मविशेषगुणत्वात् प्रयत्नवदिति बाधितत्वात्। ननु विभुविशेषगुणत्वेऽपि व्याप्यवृत्तित्वे को विरोध इति चेत् 'विभुविशेषगुणानामसमवायिकारणानुरोधाद् देशनियम' इति स्वागमविरोधः। वीतं करणं न जन्ममरणव्यवस्थाभाक् नित्यत्वात् विशेषगुणरहितत्वात् कालवत् , अणुपरिमाणत्वात् परमाणुवत्। वीतं विशेष गुण है तथा इन्द्रिय विषय के समान सुखदुःख का निमित्तकारण है अतः वह मन का विशेष नही हो सकता। मन ज्ञान का साधन है, इन्द्रिय है, दुःखरूप है तथा अनित्य है अतः चक्षु आदि के समान वह भी दूसरे शरीर को प्राप्त नही हो सकता। अदृष्ट भी स्वयं दूसरे स्थान को नहीं जा सकता क्यों कि वह निष्क्रिय है, निष्क्रिय द्रव्य ( आत्मा) पर आश्रित है, द्रव्य नही है, बुद्धि के समान गुण है। इस पर नैयायिक उत्तर देते हैं कि अदृट एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाता किन्तु वह सर्वत्र विद्यमान होता है अत: दूसरे स्थान में फल दे सकता है। किन्तु यह उत्तर सदोष है । अदृष्ट प्रयत्न के समान आत्मा का विशेष गुण है तथा व्यापक का विशेष गुण है अतः वह अपने आश्रय ( आत्मा ) को व्याप्त कर नही रहता। अदृष्ट की वृत्ति आत्मव्यापी नही होती इस विषय में नैयायिकों ने ही कहा है - • व्यापक के विशेष गुण असमवायी कारण के अनुसार विशिष्ट स्थान में नियमित होते हैं ।' अमः अहट सर्वव्यापी नही हो सकता। नैयायिकों के ही कथना १ मनः दुःखरूपम् । २ मनो न अदृष्टवत् । ३ निष्क्रियद्रव्यमात्मा । ४ गुणाः सर्वे असमवायिकारणम् अतः व्याप्यवृत्ति न; व्याप्यवृत्ति तु समवायिकारण यथा मृपिण्डो घटस्य।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy