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________________ मायावादविचारः १८९ उपाधेरपि गमनात् पूर्वमुपाध्यवष्टब्धप्रदेशस्य प्रमातृत्वं विनश्यत्येव केवलम् । ननु प्रागुपाध्यवष्टब्धप्रदेशोऽपि तेनोपाधिना सहान्यत्र गच्छतीति तत्प्रदेशप्रमातृत्वं न विनश्यतीति चेन्न । तदसंभवात् । कुतः वीतो देशो न यात्येव चिद्रूपत्वात् स्वरूपवत् । देशोऽयं न स्वयं याति प्रदेशत्वात् खदेशवत् ॥. इति प्रमाणबाधितत्वात्। तस्मादुपाधिरेव कायेन सह देशान्तरं गच्छति। तेनोपाधिना यावचैतन्यं व्याप्त तावन्मात्रमेव चैतन्यं प्रमाता भवेत् । तथा च यस्मात् प्रदेशानुपाधिर्निवर्तते तत्प्रदेशस्य प्रमातृत्वविनाशः अपरं यं प्रदेशमुपाधिः प्राप्नोति तत्प्रदेशस्य प्रमातृत्वेनोत्पत्तिरिति यदा यदा शरीरस्य देशान्तरप्राप्तिस्तदा तदा पूर्वपूर्वप्रमातृत्वविनाशः अपूर्वापूर्वस्य प्रमातुरुत्पत्तिरित्येकस्मिन् देहे बहूनां प्रमातणां विनाशनात् अपरेषां च बहूनां प्रमाणामुत्पत्तश्च कथमेको देहान्तरं व्रजेत् । ततो देहान्तरप्राप्तिः प्रमातणां न विद्यते । यतः पूर्वशरीरेण कृतकमेफलं भजेत् ॥ स्थानसे दूसरे स्थान को जाता है तब उपाधि भी साथ जायगा - अतः । पहले स्थान में उपाधि के न रहने से प्रमाता का नाश होगा। उस स्थान का चैतन्य-प्रदेश भी उपाधि के साथ जाता है यह कथन संभव नही क्यों कि 'ब्रह्मस्वरूप में गमन संभव नही उसी प्रकार चैतन्यप्रदेशमें भी गमन संभव नही; आकाश-प्रदेश गमन नही करते उसी प्रकार चैतन्य-प्रदेश भी गमन नही करते । : उपाधि से युक्त चैतन्य प्रमाता है अतः शरीर के साथ उपाधि के स्थानान्तर होने पर पूर्व स्थान के प्रमाता का नाश होगा तथा नये स्थान में नया प्रमाता उत्पन्न होगा। इस प्रकार एक ही शरीर में कई प्रमाताओं की उत्पत्ति तथा विनाश होगा। इस से प्रमाता एक शरीर छोडकर दूसरे शरीर को ग्रहण करता है इस कथन का कोई अर्थ नही होगा। इसी लिए कहते हैं कि 'प्रमाताओं को दूसरे शरीर की प्राप्ति नही होती, जिससे वे पहले शरीर द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगें।' जब एक १ प्रागुपाध्यवष्टब्धप्रदेशः। २ उपाधिस्तु ब्रह्मवादिना सर्वगतः प्रति पाद्यतेऽतः दूषणानि।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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