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________________ १८४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५४ रादिवदिति प्रमाणविरोधात् । अन्यथा' चक्षुरादिबुद्धीन्द्रियवागादिकमेंन्द्रियशिरोजठराद्यङ्गोपाङ्गादिभ्यः प्रमातृभेदः प्रसज्येत इत्येकं शरीरं बहुभिः प्रमातृभिरधिष्ठितं स्यात् । तथा च विभिन्नाभिप्रायानेकप्रमातृभिः प्रेरितं शरीरं सर्वदिक्रियमुन्मथ्येत अक्रियं वा प्रसज्येत । ननु अन्तःकरणमेव प्रमातृभेदकं न चक्षुरादय इति चेन्न । जडत्वजन्यत्वकरणत्वाविद्याकार्यत्वाविशेषेपि एकस्य प्रमातृभेदकत्वमन्यस्याभेदकत्वमिति नियामकाभावात् । अथ संस्कारादीनां प्रमातृभेदकत्वमिति चेन्न । संस्कारादयः प्रमातृभेदका न भवन्ति जडत्वात् जन्यत्वात् करणत्वात् अविद्याकार्यत्वात् पटादिवदिति बाधकसद्भावात् । ततः स्वभावतः एव प्रमातृभेदः स्वीकर्तव्यः। [५४. प्रमाणप्रमेयभेदसमर्थनम् । ] तथा प्रमाणप्रमितिप्रमेयभेदोऽपि परमार्थ इत्यङ्गीकर्तव्यः । तथा प्रमाणं प्रमितिमयं प्रमातेति चतुष्टयम्। विहायान्यत् कथं सिद्धयेत् तत्सिद्धौ मानवर्जनात् ॥ चक्षु आदि इन्द्रियों के समान वह प्रमाताओं में भेद नही कर सकता। . यदि अन्तःकरणों से जीवों में भेद होता हो तो चक्ष आदि इन्द्रियों से भी होगा – फिर प्रत्येक इन्द्रिय तथा अवयव में अलग अलग जीव का अस्तित्व मानना होगा जो असंभव है। अन्तःकरणों से तो जीवों में भेद होता है और चक्षु आदि से नही होता ऐसा भेद करने का कोई कारण नही है। अन्तःकरण के समान संस्कार भी जड, करण, उत्पत्तियुक्त तथा अविद्या के कार्य हैं अतः वे भी प्रमाताओं में भेद के कारण नहीं हैं। तात्पर्य - प्रमाता जीवों में जो भेद है वह स्वाभाविक ही मानना चाहिए । ५४. प्रमाण प्रमेय का भेदसमर्थन-प्रमाता के समान प्रमाण, प्रमिति तथा प्रमेय का भेद भी वास्तविक है। ' प्रमाण, प्रमिति, प्रमेय तथा प्रमाता इन चारोंको छोडकर कोई तत्त्व कैसे सिद्ध होगा? ऐसे तत्त्व की सिद्धि किसी प्रमाण से नही हो सकती ।' यदि ऐसा तत्त्व ( ब्रह्म ) प्रमाणसिद्ध माना जाता है तो वह दृश्य अतएव बाधित होगा। १ प्रमाणविरोधो नो चेत्-अंतःकरणं प्रमातृभेदकं नो चेत् । २ निश्चयाभावात् । ३ पुण्यपापसंस्कारादीनाम् । ४ ब्रह्मसिद्धौ प्रमाणाभावात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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