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________________ १७८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५२णामेकात्मभोगायतनत्वं साध्यं स्वानुभवप्रत्यक्षबाधितमिति तत्र प्रवर्तमानस्य हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात्। तृतीयपक्षोऽपि न संभाव्यते । आत्मनः सकलशरीरसंसृष्टत्वस्य प्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । कथम्। यथा संप्रतिपन्नशरीरे पादाभ्यां गच्छामि पाणिभ्यामाहरामि श्रोत्राभ्यां शृणोमि चक्षुा पश्यामि पादे मे वेदना शिरसि मे वेदना जठरे मे सुखमित्यादि सकलोपाधिषु स्वस्य संसर्गः स्वानुभवप्रत्यक्षेणैव प्रतीयते तथा सकलशरीरोपाधिसंसर्गोऽप्यस्ति चेत् तेनैव प्रत्यक्षेणैव प्रतीयेत । न च प्रतीयते । तस्मात् तन्नास्तीति स्वानुभवप्रत्यक्षेणैव निश्चीयत इति । एतेन यदप्यनुमानमवादीत् वीतानि शरीराणि मत्संसर्गाणि शरीरत्वात् मच्छरीरवत् इति तदपि निरास्थत् । स्वात्मनः सकलशरीरसंसर्गस्य स्वानुभवप्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वाविशेषात् । ननु मम सकलशरीरेष्वनुसंधानसभावात् तत्संसर्गोऽस्तीति निश्चीयत इति चेत् तर्हि तव पादतललग्नकण्टकोद्धारणाय पाणितलव्यापारवत् सकलमृगपशुपक्षिमनुष्यादीनां दुःखहेतुपरिहाराय स्वस्य व्यापारप्रसंगात्। कुतः। सकलदुःखानां स्वानुसंधानगोचरत्वेन स्वकीयदुःखत्वात् । न चैवं दृश्यते। तस्मात् तव सकलशरीरसंसर्गो नास्तीति निश्चीयते। [५२. आत्मनः एकत्वनिरासः।] ___अथ आत्मा एक एव मनोऽन्यत्वे सति सदा स्पर्शरहितद्रव्यत्वात् है। जैसे एक आत्मा को अपने शरीर के विषय में मैं पांव से चलता हूं, हाथ से लेता हूं, कानों से सुनता हूं आदि प्रतीति होती है वैसे अन्य शरीरों के विषय में नही होती। अतः एक आत्मा का सब शरीरों से सम्पर्क मानना प्रत्यक्षबाधित है। मेरे शरीर के समान सब शरीरों का मेरे आत्मा से सम्बन्ध है यह कथन भी उपर्युक्त प्रकार से ही दोषयुक्त है । यदि सब शरीरों का आप से सम्बन्ध हो तो उनके सुखदुःख की आपको प्रतीति होगी तथा उन सब के दुःख दूर करने के आप प्रयास करेंगे। किन्तु ऐसा होता नही है । अतः एक आत्मा का अनेक शरीरों से सम्बन्ध सिद्ध नही हो सकता। ५२. आत्माके एकत्वका निरास -आत्मा मन से भिन्न है तथा स्पर्शरहित द्रव्य है अतः वह आकाश के समान एक ही है यह
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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