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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ -४८ कर्मेन्द्रियजठराद्युपाधिषु व्याप्य वर्तमानस्य स्वरूपस्यानुसंधानं तथात्रापि देवमनुष्यमृगपशु पक्षिवनस्पत्यादिसकलशरीरोपाधिषु व्याप्य वर्तमानस्य स्वरूपस्यानुसंधानमस्तीति चेन्न । तथा सति यथा पादतलादिलग्नकण्टकाद्यपनयनार्थ पाणितलादीनां व्यापारः तथा चैत्रगात्रदुःखहेतुपरिहारार्थ मैत्रगात्र व्यापारप्रसंगस्य दुर्निवारत्वात् । ननु तत्र बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियशिरोजठरापाधिषु व्याप्य वर्तमानस्यानुसंधातुर्भोक्तृत्व सद्भावात् पादतलादिदुःखहेतु परिहाराय पाणितलादिव्यापारः संभाव्यते दुःखहेतुपरिहारस्य भोगप्रयोजनार्थत्वात् । अत्र तु देवमनुष्य मृगपशुपक्षिवनस्पत्यादिशरीरोपाधिषु व्याप्य वर्तमानस्यानुसं धातुर्ब्रह्मस्वरूपस्य भोक्तृत्वाभावाच्चैत्रगात्र दुःखहेतुपरिहाराय मैत्रगात्रव्यापारो न प्रसज्यते । कुतः दुःखहेतुपरिहारस्य भोगप्रयोजनार्थत्वात् । अत्रत्यानुसंधातु ह्मणो भोगोपभोगाभावोऽपि ' अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति' इति श्रुतेर्निश्चीयत इति चेन्न । बाधितत्वात् । तथा हि । विवादाध्यासितं स्वरूपं भोक्तृ भवति अनुसंधातृत्वात् जीवस्वरूपवदिति तस्य भोक्तृत्वसद्भावाच्चैत्रगात्र दुःखहेतुपरिहाराय मैत्रगात्रव्यापारप्रसंगस्तदवस्थ एव । ननु आगम - १६४ प्रवृत्त किया जाता है । यदि सब शरीरों में एक ही चैतन्य व्याप्त होता तो चैत्र के दुःख को दूर करने के लिए मैत्र को प्रवृत्त किया जाता किन्तु ऐसा होता नही है । इस के उत्तर में वेदान्तियों का कथन है कि एक शरीर में व्याप्त चैतन्य तो भोक्ता है अतः एक अवयव के दुःख को दूर करने में वह दूसरे अवयव को प्रवृत्त करता है, किन्तु सब शरीरों में व्याप्त चैतन्य - ब्रह्म भोक्ता नही है अतः एक शरीर के दुःख को दूर करने में दूसरे शरीर को प्रवृत्त नही करता । दुःख का परिहार ही भोग है, जो भोक्ता है वह भोग के लिए यत्न करता है, जो भोक्ता नही है वह भोग के लिये यत्न नही करता । ब्रह्म भोक्ता नही यह उपनिषद्वचन से भी स्पष्ट होता है । जैसे कि कहा है- 'वह दूसरा खाता नही है, केवल देखता है ' । किन्तु वेदान्तियों का यह कथन अयोग्य है । जीव विभिन्न इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है - अनुसंधाता है, वह भोक्ता भी है । इसी तरह ब्रह्म भी यदि अनुसंधाता हो तो भोक्ता भी होना चाहिये, अर्थात् एक व्यक्ति के दुःख को दूर करने के लिये 1 १ कण्टकादि । २ ब्रह्मस्वरूपम् । ३ अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीतीत्यादि ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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