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________________ -४५ ] मायावादविचारः १५३ उत्सरान्तवत्वात् शुक्तिरजतवदित्यादिकमपि निरस्तं ज्ञातव्यम् । एतेषामपि हेतूनामुत्पत्तिमत्त्वाभिधानेन तद्दोषेणैव दुष्टत्वात् । ननु प्रपञ्चो मिथ्या प्रपञ्चत्वात् स्वप्नप्रपञ्चवदिति चेत् प्रपञ्चत्वं नाम विभुत्वं नानात्वाधिकरणत्वम् असत्यत्वं वा। प्रथमपक्षे भागासिद्धो हेतुः। ग्रामारामादिप्रपञ्चेषु विभुत्वाभावात्। अनैकान्तिकश्च सत्ये परमात्मनि विभुत्व. सद्भावात् । द्वितीयपक्षेऽप्यनैकान्तिक एव हेतुः स्यात् । सत्ये परमात्मनि नानात्वाधिकरणसद्भावात् । कुतः दिक्कालाकाशात्ममनांसीति सर्वेषां नानात्वाधिकरणसभावात्। तृतीयपक्षे साध्यसमत्वादसिद्धो हेतुः। मिथ्या असत्यत्वमित्येकार्थत्वात् । एतेन प्रपञ्चो मिथ्या अनेकत्वात् नानात्वात् भिन्नत्वात् भेदित्वात् स्वप्नप्रपञ्चवदित्यादिकमपि प्रत्युक्तमवगन्तव्यम् । अत्रोक्तहेतूनामपि प्रपञ्चत्वहेतुपर्यायत्वेन तत्रोक्तदोषेणैव दुष्ट कादाचित्क, जन्य, विनाशो, पूर्वमर्यादायुक्त, उत्तरमर्यादायुक्त, आदि शब्द उत्पत्तियुक्त के ही पर्यायवाची हैं अतः उन के प्रयोग से भी प्रपंच का मिथ्या होना सिद्ध नही होता। प्रपंच सब मिथ्या हैं क्यों कि स्वप्नप्रपंच के समान वे ए.पंच हैं - यह कथन भी निरर्थक है। यहां प्रपंच का तात्पर्य व्यापक होना, अनेक का आधार होना, अथवा असत्य होना इन में से एक हो सकता है । इन में पहला पक्ष उचित नही क्यों कि प्रपंच में सम्मिलित गांव, उद्यान आदि व्यापक नही होते - मर्यादित होते हैं अतः वे व्यापक हैं अतः मिथ्या हैं यह कथन सम्भव नही । दसरा पक्ष भी दूषित है क्यों कि दिशा, काल, आकाश, आत्मा, मन ये सब अनेक के आधार होने पर भी सत्य हैं, मिथ्या नही। वेदान्त मत में भी परमात्मा को अनेकत्व का आधार माना है किन्तु मिथ्या नही माना है। अतः अनेक का आधार होने से प्रपंच का मिथ्या होना सिद्ध नही होता। तीसरा पक्ष भी उचित नहीं क्यों कि असत्य होना और मिथ्या होना एकही बात है अतः एक को दूसरे का कारण नही बताया जा सकता। अतः प्रपंच को मिथ्या सिद्ध करना संभव नही है । अनेक, नाना, भिन्न, भेदयुक्त ये सब शब्द अनेक के आधार के ही पर्यायवाची हैं अतः उन के प्रयोग से भी प्रपंच मिथ्या १ व्यापित्वम् । २ अनेकत्वात् नानात्वात् विभिन्नत्वात् इत्यादयः प्राञ्चत्वपर्यायाः ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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