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________________ १३८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१७तस्माद् विवादपदं रजतम् अनिर्वाच्यमेव ख्यातिबाधान्यथानुपपत्तेरिति मायावादिनः प्रत्याचक्षते। सति चैवं प्रपञ्चोऽपि स्यादविद्याविजृम्भितः। जाडयदृश्यत्वहेतुभ्यां रजतस्वप्नदृश्यवत् ॥ तेऽप्यतत्त्वज्ञाः। तदुक्तार्थापत्तेः कल्पकाभावात् असिद्धत्वादिति यावत् । तथा हि। विवादास्पदं रजतं ख्यातिबाधारहितं प्रमातुरवेद्यत्वात् परमात्मवत् । न चायमसिद्धो हेतुः। तस्य प्रमातृवेद्यत्वे विवादपदं रजतं शुक्त्यज्ञानादनुत्पन्नं शुक्तिज्ञानादनिवर्त्य सत्यं च प्रमातृवेद्यत्वात् सम्यग्. रजतवदिति स्वयमेवेष्टसिद्धयादी बाधकोपन्यासात्। तथा वीतं रजतं ख्यातिबाधारहितम् अविद्यमानबाधकत्वात् परमात्मवत् । अथात्र अविद्यमानबाधकत्वमसिद्धमिति चेन्न । वीतं रजतम् अविद्यमानबाधकं प्रमातुरवेद्यत्वात् परमात्मवदिति तसिद्धेः । तथा वीतं रजतं ख्यातिबाधारहितम् अबाध्यत्वात् परमात्मवत्। अथास्याबाध्यत्वमसिद्धमिति चेन्न। वीतं रजतम् अबाध्यं प्रमातुरवेद्यत्वात् परमात्मवदिति तत्सिद्धेः। तस्माद् उपपत्ति नही होगी। इसी के आधार पर वे आगे कहते हैं, 'चांदी अथवा स्वप्न के समान प्रपंच भी जड और दृश्य है अतः वह भी अविद्या से निर्मित है।' मायावादियों का यह प्रतिपादन उचित नही। उन्होंने स्वयं प्रस्तुत चांदी को प्रमाता के द्वारा अवेद्य माना है - इष्टसिद्धि आदि ग्रन्थों में कहा है कि यदि प्रस्तुत चांदी प्रमाता के द्वारा जानी जाय तो वह सत्य होगी, सीप के अज्ञान से उत्पन्न या सीप के ज्ञान से निवृत्त नहीं होगी। जो चांदी प्रमाता के द्वारा जानी ही नही जाती उस की ख्याति (ज्ञान) या उस का बाध सम्भव नही है। इसी प्रकार जो प्रमाता के द्वारा जानी नही जाती उस चांदी का बाधक होना भी सम्भव नहीं है । जिस तरह परमात्मा प्रमाता के द्वारा ज्ञेय नही है उसी तरह यह चांदी भी है अतः इसको भी परमात्मा के समान अबाध्य समझना चाहिए । इस तरह ज्ञान . १ मायावादिमते पारमार्थिकसत्ता ब्रह्म व्यावहारिकसत्ता घटपटादि प्रतिभासिकसत्ता शुक्ती रजतज्ञानं । २ शुक्ती रजतवत् स्वप्ने पदार्थवत् । ३ अर्थापत्तेः प्रामाणस्य कल्पकाभावात् सामर्थ्याभावात् । ४ अनिर्वाच्यम् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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