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इति तदप्यसमञ्जसम् । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् एतद्देशे कालान्तरे सर्वज्ञसद्भावेन सर्वज्ञरहितत्वाभावात् । यदप्यभ्यधायि वीतः कालः सर्वशरहितः कालत्वात् इदानींतनकालवदिति तदप्यसंगतम् । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् इदानीमपि देशान्तरे सर्वज्ञसद्भावेन इदानींतन कालस्य सर्वशरहितत्वाभावात् । यदप्यन्यदवादि वीतः पुरुषः सर्वशं न पश्यति पुरुषत्वात् अस्मदादिवदिति सर्वशाभावात् तत्प्रणीतागमाभाव इति तदप्यसत् । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् । कथम् । अस्मदादावागमानुमानाभ्यां सर्वशप्रतिपत्तिसद्भावात् । ततस्सर्वज्ञसद्भावात् सर्वशप्रणीतागमसद्भावः ततश्च जीवस्थानाद्यनन्तत्वसिद्धिरिति ।
अथ वीतौ देशकालौ सर्वज्ञरहितौ देशकालत्वात् एतद्देशकाल - वदिति सर्वशाभाव इति चेत् । तत्र चार्वाकस्य धर्मी प्रमाणप्रसिद्धो न वा । प्रथमपक्षे प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनश्चार्वाकस्यानाद्यनन्तकालं सकलदेशं तथा इस काल के समान सभी काल सर्वज्ञरहित हैं यह अनुमान भी युक्त नही । इसी प्रदेश में पूर्ववर्ती काल में सर्वज्ञ हो गये हैं तथा इसी काल में भी अन्य प्रदेशों में सर्वज्ञ विद्यमान हैं । अतः यह काल और यह प्रदेश सर्वज्ञरहित हैं यह नही कहा जा सकता । हमारे जैसे पुरुषों को सर्वज्ञ का ज्ञान नही होता अतः किसी पुरुषको नही होता होगा यह कहना भी ठीक नही क्यों कि हमें ( जैनों को ) आगम तथा अनुमान से सर्वज्ञ का ज्ञान होता ही है । इस तरह सर्वज्ञ की सिद्धि होती है तथा उसी से सर्वज्ञ प्रणीत आगम प्रमाणभूत सिद्ध होते हैं । तदनुसार जीवका अनादिअनन्त होना स्पष्ट ही है ।
सर्वज्ञसिद्धिः
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सभी प्रदेशों तथा सभी कालों में सर्वज्ञ नही हैं ऐसा चार्वाक कहते हैं । किन्तु चार्वाक सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। सिर्फ प्रत्यक्ष से सभी प्रदेशों तथा सभी कालों का ज्ञान कैसे सम्भव है ? यदि सम्भव हो तो जिसे ऐसा ज्ञान है वह स्वयं ही सर्वज्ञ होगा । फिर जगत में सर्वज्ञ नहीं हैं यह कहना उसके लिए सम्भव नही है । यदि सब देशों तथा कालों को चार्वाक नही जानते हैं तो किसी प्रदेश या किसी काल में सर्वज्ञ नही हैं यह कहना उनके लिए योग्य नही है ।
१ असर्वशवादी चार्वाकः मीमांसको वा वदति । १२ वीतौ देशकाली इति धर्मों । ३ यदि धर्मी प्रमाणसिद्धः ।