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________________ -१७] सर्वज्ञसिद्धिः [ १७. सर्वज्ञसाधकानि अनुमानान्तराणि । ] तथा कश्चित् पुरुषः सकलपदार्थसाक्षात्कारीतद्ग्रहणयोग्यत्वे सत्य. पगताशेषदोषत्वात् । यः सकलपदार्थसाक्षात्कारी न भवति स तद्ग्रहणयोग्यत्वे सत्यपगताशेषदोषोऽपि न भवति यथा मलिनो मणिः। तद्ग्रहणयोग्यत्वे सत्यपगताशेषदोषश्चायं तस्मात् सकलपदार्थसाक्षात्कारी भवतीति च । अथात्रापिविशेष्यासिद्धो हेतुरिति चेन्न । क्वचित् पुरुषे अपगताशेषदोषत्वस्य प्रागेव समार्थतत्वात् । तर्हि विशेषणासिद्धों हेतुभविष्यतीति चेन्न । सकलपदार्थग्रहणयोग्यत्वस्यात्मनि विद्यमानत्वात् । तदभावे वा आगमात् यत्कार्य तत्कारणपूर्वकमित्यादि व्याप्तिज्ञानाच सकलपदार्थग्रहणं न स्यात् । अपि च, 'यदि षडूभिः प्रमाणैः स्यात सर्वज्ञः केन वार्यते। एकेन तु प्रमाणेन सर्वशः केन कल्प्यते॥' (मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ.७९) १७. सर्वज्ञत्व साधक अन्य अनुमान-सर्वज्ञ का अस्तित्व इस अनुमान से भी ज्ञात होता है - किसी पुरुष में समस्त पदार्थों का ग्रहण करने की योग्यता हो और उस के समस्त दोष दूर हों तो वह समस्त पदार्थों का साक्षात् झान प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ - कोई रत्न मलिन है तबतक उस में कोई प्रतिबिम्ब सम्भव नही होता। (वही निर्मल हो तो यथासम्भव अनेक पदार्थोंका प्रतिबिम्ब उस में पडता है।) यहां विवक्षित पुरुष के समस्त दोष दूर हुए हैं ( उस में ज्ञान और वैराग्य का परम उत्कर्ष हुआ है ) यह पहले बतलाया ही है। तथा आत्मा में समस्त पदार्थों का ग्रहण करने की योग्यता है यह मीमांसकों को भी मान्य है। आगम से (वेद से ) समस्त (अतीन्द्रिय) पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा प्रत्येक कार्य के पूर्ववर्ती कारण होता है इस प्रकार व्याप्तिका ज्ञान भी समस्त पदार्थों का ग्रहण करता है यह मीमांसकों को मान्य है। ऐसा उन्हों ने कहा भी है - 'कोई पुरुष छह प्रमाणों से सर्वज्ञ होता हो तो कोई उस का निवारण नही करता है किन्तु एक प्रमाण ( केवल प्रत्यक्ष ) से सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ! ' अतः १ कश्चित् पुरुषः। २ तद्ग्रहणयोग्यत्वे सति अपगताशेषदोषत्वात् । ३ अपगताशेषदोषत्वात् अयं विशेष्यः। ४ प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वस्य । ५ तद्ग्रहणयोग्यत्वे सति इति विशेषणम् । ६ सकलपदार्भग्रहणयोग्यत्वम् आत्मनि विद्यमानमस्ति । ७ प्रत्यक्षण ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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