SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || भाषाटिप्पणानि || डॉनचंद्र शास्त्री, एम्. ए. पी. एच-डी पृष्ठ १, पं. ४ प्रमाण-प्रमाण शब्द की व्याख्या को लेकर भारतीय दर्शनशास्त्रों में बहत ऊहापोह हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है-१) प्रमीयते अनेनेति प्रमाणम्' और २) 'प्रमितिः प्रमागम्'। प्रथम व्युत्पत्ति करण-साधन है, वहाँ ज्ञान के साधन को प्रमाण माना गया है। दूसरी व्युत्पत्ति भावसाधन है, वहाँ ज्ञान या अनुभूति को ही प्रमाण माना गया है। न्याय तथा मीमांसा प्रथम व्युत्पत्ति को लेकर चलते हैं, और बौद्ध, जैन, वेदांत आदि द्वितीय व्युत्पत्ति को। ___ न्याय-दर्शन के अनुसार ज्ञान की चार अवस्थाएँ हैं। १) सन्निकर्ष-इंद्रिय और विषय का संबंध २) निर्विकल्पकज्ञान- ३) सविकल्पकज्ञान-४) हानोपादानबुद्धि उसका कथन है कि 'अयं घटः' आदि प्रत्येक ज्ञान विशिष्ट या सप्रकारक होता है। यहाँ 'घट:' का अर्थ है 'घटत्व-विशिष्टघट'। इसी को 'घटत्वप्रकारक-घटविशेष्यक-ज्ञान' कहा जाता है। यह तृतीय अवस्था है, जिसे प्रमिति या ज्ञान कहा जाता है। पूर्ववर्ती दो अवस्थाओं में सन्निकर्ष प्रमाण है और निर्विकल्पक ज्ञान मध्यवर्ती म्यापार । हानोपादन बुद्धि ज्ञान का फल है। कहीं-कहीं द्वितीय अवस्था को ज्ञान और तृतीय को फल बताया गया है । इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान तीन अवस्थाओं में विभक्त हो जाता है- १) प्रमाण २) प्रमिति और ३) फल । जैन तथा बौद्धदर्शन सन्निकर्ष को प्रमाण मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कथन है कि ज्ञान और उसका फल चेतना की ही दो अवस्थाएँ हैं। प्रथम अनुभूति प्रमाण कही जाती है और द्वितीय फल । दूसरा विवाद इस प्रश्न को लेकर है कि ज्ञान विषय को जानने के साथ अपने को भी जानता है या नहीं । न्यायदर्शन का कथन है कि ज्ञान केवल विषय को अभिव्यक्त करता है, अपने आप को नहीं । अपने बाप को अभिव्यक्त करने के लिए उसे ज्ञानांतर की आवश्यकता होती है । द्वितीयज्ञान प्रथम ज्ञान को अभिव्यक्त करता है और तृतीय ज्ञान द्वितीय को। इस प्रकार जब तक अपेक्षा बनी रहती है। उत्तरोत्तर ज्ञान होते चले जाते हैं। जैन, बौद्ध एवं वेदांत दर्शनों का कथन है कि प्रत्येक ज्ञान वस्तुप्रकाशन के साथ अपने को भी प्रकाशित करता है । उसे प्रकाशित होने के लिए ज्ञानांतर की आवश्यकता नहीं होती। प्रदीप के समान वह वस्तु को आलोकित करता है और स्वयं भी आलोकित होता है. इस लिए जैन-आचार्य प्रमाण की परिभाषा में 'स्व' शब्द का संनिवेश करते हैं। अद्वैत वेदांत तथा बौद्धों की योगाचार परंपराएँ बाह्य जगत् को सत्य नहीं मानतीं। उनकी दृष्टि में बाह्य वस्तुओं की प्रतीति मिथ्या है। किंतु जैनदर्शन बाह्य जगत् को सत्य मानता है । फलस्वरूप बाह्य बस्तुओं के ज्ञान को प्रमाणकोटि में रखता है। इसी लिए 'पर' शब्द का संनिवेश किया जाता है। बौद्धों का कथन है कि वस्तु की सर्वप्रथम प्रतीति निर्विकल्पक होती है । तत्पश्चात् उस पर कल्पनाओं का जाल खडा किया जाता है । मिथ्यात्व केवल कल्पनाओं में रहता है । अंधेरे में एक आकार दिखाई देता है, कोई वहाँ साँप की कल्पना करता है और कोई रस्सी की । कल्पना से पहले की प्रतीति सत्य एवं वस्तुस्पर्शी होती है । उस पर रस्सी आदि की कल्पनाएँ हमारी ओर से की जाती हैं और वे सभी मिथ्या हैं
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy