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जैन तर्क भाषा श्रवणे तदाभिमुख्यदर्शनात्, एकेन्द्रियाणामप्यव्यक्ताक्षरलाभाच्च। अनक्षरश्रुतमुछ्वासादि, तस्यापि भावश्रुतहेतुत्वात्, ततोऽपि 'सशोकोऽयम्' इत्यादिज्ञानाविर्भावात् । अथवा श्रुतोपयुक्तस्य सर्वात्मनैवोपयोगात् सर्वस्यैव व्यापारस्य श्रुतरूपत्वेऽपि अत्रैव शास्त्रज्ञलोकप्रसिद्धा रूढिः । समनस्कस्य श्रुतं सज्ञिश्रुतम् । तद्विपरीतमसज्ञिश्रुतम् । सम्यक्श्रुतम् अंगानंगप्रविष्टम्, लौकिकं तु मिथ्याश्रुतम्। स्वामित्वचिन्तायां तु भजना-सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्श्रुतमेव वितथभाषित्वादिना यथास्थानं तदर्थविनियोगात्, विपर्ययान्मिथ्याष्टिपरिगृहीतं च सम्यक्श्रुतमपि मिथ्याश्रुतमेवेति । सादि-द्रव्यत एकं पुरुषमाश्रित्य, क्षेत्रतश्च भरतैरावते, कालत उत्सपिण्यवसपिण्यौ, भावतश्च तत्तज्ज्ञापकप्रयत्नादिकम् । अनादि,-द्रव्यतो नानापुरुषानाश्रित्य, क्षेत्रतो महाविदेहान्, कालतो नोउत्सपिण्यवसर्पिणीलक्षणम्, भावतश्च
मनुष्य और गौ आदि पशु भी अपना नाम आदि शब्द सुनकर उसकी ओर अभिमुख होते देखे जाते हैं। यही नहीं, एकेन्द्रिय जीवोंको भी अव्यक्त अक्षरश्रुत का लाभ होता है ।
(२) अनक्षरश्रुत-उच्छ्वास आदि कहलाता है। यह भी भावश्रुतका कारण है, क्योंकि 'यह सशोक है' इत्यादि प्रकार का ज्ञान उससे उत्पन्न होता है । अथवा श्रुतज्ञान में उपयुक्त आत्मा का सर्वात्मना-सम्पूर्ण रूपसे ही व्यापार होता है, अतः उसका समस्त व्यापार श्रुतस्वरूप ही है। फिर भी खास अभिप्रायसे होनेवाले उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी छींक आदि को ही शास्त्रज्ञों की रूढ़ि के अनुसार अनक्षरश्रुत कहते हैं।
(३) संज्ञी (समनस्क) जीवोंका श्रुतज्ञान संज्ञिश्रुत कहलाता है। (४) असंज्ञी जीवोंके श्रुत को असंज्ञिश्रुत कहते हैं। (५) अंगप्रविष्ट (आचारांग आदि बारह अंग) और बाहय (दशवैकालिक आदि) श्रुत सम्यक्श्रुत हैं । (६) लौकिक आगम-अनाप्तप्रणीत शास्त्र-मिथ्याश्रुत हैं । ____किन्तु सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुतके स्वामियोंका विचार किया जाय तो दोनोंमें भजना-विकल्प है । वह इस प्रकार-सम्यग्दृष्टि द्वारा गृहीत मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत ही है, क्यों कि सम्यक्दृष्टि मिथ्याश्रुत को पढ़कर उसे मिथ्यावादी आदि रूपसे यथास्थान ठीकठीक योजित कर लेता है । इसके विपरीत मिथ्या-दृष्टि द्वारा ग्रहण किया हुआ सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत बन जाता है, क्योंकि वह यथार्थ रूप से उसकी योजना नहीं करता।
(७) द्रव्यसे एक पुरुषकी अपेक्षा, क्षेत्रसे भरत-ऐरावतकी अपेक्षा, कालसे उत्सर्पिणीअवसर्पिणीकी अपेक्षा और भावसे अमुक-अमुक प्ररूपकके प्रयत्न-चेष्टा आदिकी अपेक्षासे श्रुत आदि होता है।
(८) द्रव्यके नाना (सभी) पुरुषोंकी अपेक्षा, क्षेत्रसे महाविदेहोंकी अपेक्षा, कालसे नोउत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकी अपेक्षा और भावसे सामान्य क्षयोपक्षमकी अपेक्षासे श्रुत अनादि है. सदैव ही बना रहता है।