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नामक प्रत्यागति के द्वारा सार्वत्रिक संबंध को जाना जा सकता है। जैनदर्शन का कथन है कि तर्क या अह के बिना सामान्यलक्षणप्रत्यासति संभव नहीं है इसकी व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। सामान्य का ज्ञान या ज्ञायमान सामान्य किंतु यहाँ प्रश्न होता है कि जब तक समस्त व्यक्तियों का प्रत्यक्ष नहीं होता तब तक उसमें रहनेवाले सामान्य का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? इसके लिए एक ही उपाय है कि विचार या पर्यालोचन के रूप में पृथक् ज्ञान माना जाय । उसी को जैनदर्शन में ऊह या तर्क कहा गया है।
पृष्ठ ३३, पं. ७ आहायंत्रसंजनम् धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है। घूम व्याप्य है और अनि व्यापक अनुमान का समर्थन करने के लिए यह कहा जाता है कि जहाँ व्यापक नहीं होता वहाँ व्याप्य भी नहीं होता। वहाँ व्यापक अर्थात् अग्नि का अभाव व्याप्य हो जाता है और व्याप्य अर्थात् धूम का अभाव व्यापक । व्याप्तिनिश्चय के लिए होनेवाली इस प्रतीति को आहार्य ज्ञान कहा जाता है। क्योंकि उसका कोई विषय नहीं होता।
पृष्ठ ३२, पं. ८ बिरोधि शंका- स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस संशय में दो कोटियों का मान होता है। प्रतीति के स्पष्ट होने पर एक कोटि का प्रत्यक्ष हो जाता है और 'स्थाणुरेवायम्' यह प्रतीति होने लगती है । इसके साथ ही 'न पुरुष:' इस प्रकार निराकरण भी होता है । यहाँ प्रश्न होता है-प्रत्यक्ष तो विध्यात्मक होता है, फिर निराकरण किस ज्ञान का विषय है ? जैनदर्शन इसके लिए तर्कनामक प्रमाणांतर उपस्थित करता है। न्यायदर्शन विशेषणतानामक सत्रिकर्ष द्वारा अभाव का भी प्रत्यक्ष मानता है उसका कथन है कि 'घटाभाववत् भूतल' इस ज्ञान में चक्षु का संबंध भूतल के साथ होता है और घटाभाव भूतल का विशेषण है, अतः उसका भी प्रत्यक्ष हो जाता है। 'स्थाण्रयं न पुरुष:' इस ज्ञान में 'पुरुषाभाव' 'इदं' अर्थात् पुरोवर्ती वस्तु का विशेषण है ।
पृष्ठ ३४, पं. ३ इत्थं च न्यायदर्शन का कथन है कि तर्क का कार्य विरोधी शंका को दूर करना है । धूमद्वारा अग्नि के अनुमान में यह शंका हो सकती है कि धूम होने पर भी अग्नि न हो ! तर्क इस शंका का निराकरण करता है। वह कहता है कि अग्नि के बिना धूम का अस्तित्व तभी हो सकता है यदि वह अग्नि का व्याप्य न हो, किंतु अग्नि का कार्य होने के कारण वह उसका व्याप्य भी है । अतः अग्नि के बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है । इस प्रकार तर्क व्यभिचार शंका का निराकरण करता है। स्वतंत्र रूप से किसी नए ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता। इसीलिए प्रमाण नहीं है। किंतु धर्मभूषण ने तर्क को अज्ञान का निवर्तक बताया है। यशोविजय का कथन है कि यहाँ अज्ञान का अर्थ व्यभिचार-शंका है, ज्ञानाभाव नहीं ज्ञान का अर्थ है - निश्चयात्मक प्रतीति । निश्चयात्मक न होने के कारण संशय भी अज्ञान ही है और उसका निवर्तक होने के कारण तर्क को प्रमाण माना जा सकता है ।
पृष्ठ ३५, पं. १ निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः हेतु और साध्य के परस्पर संबंध को लेकर "भारतीय दर्शनों में विस्तृत चर्चा है। बौद्ध तार्किकों ने इसके लिए विलक्षण के रूप में मापदंड उपस्थित किया है
१) पक्षसत्त्व - अर्थात् हेतु को पक्ष में रहना चाहिए। पक्ष का अर्थ है वह स्थान जहाँ अनुमानद्वारा साध्य का अस्तित्व बताया जाता है। पर्वत में अग्नि का अस्तित्व बताते समय पर्वत पक्ष है।
२) सपक्षसत्त्व - सपक्ष का अर्थ है वह स्थान जहाँ साध्य का अस्तित्व पूर्वनिश्चित है जैसे रसोईघर यहां भी हेतु का होना आवश्यक है।
३) विपक्षासत्त्व - विपक्ष का अर्थ है वह स्थान जहाँ साध्य का न होना निश्चित है, जैसे सरोबर पानी में आग नहीं होती। ऐसे स्थान में हेतु नहीं रहना चाहिए। जिस हेतु में ये तीनों बातें हैं, वही साध्य