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किञ्चित भारताविक
ग्रन्थ पर नयनप्रसादिनी नामक जो व्याख्या लिखी है उसमें दर्शनशास्त्रोंके प्रणेता जिन अनेकानेक ग्रन्थकारों के और उनके ग्रन्थोंके नाम निर्दिष्ट किये हैं उन नामोंमें सर्वदेव और उनके रचित प्रमाणमञ्जरी ग्रन्थका भी नाम उल्लिखित है । इसलिये प्रस्तुत ग्रन्थ उस समयके ग्रन्थकारोंमें ज्ञात रहा है इसमें कोई संदेह नहीं है'
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जैन संप्रदायमें भी प्राचीन कालमें इस ग्रन्थका पठन-पाठन विशेष रूपसे रहा है यह तो इसकी जो अनेकानेक प्राचीन प्रतियां विशेष रूपसे जैन ग्रन्थ भण्डारोंमें ही उपलब्ध होती हैं उसीसे सिद्ध है | अकबर बादशाहके जैन गुरु सुप्रसिद्ध आचार्य हीरविजय सूरिके प्रधान शिष्य विजयसेन सूरिने जिन शैव दर्शनके मुख्य मुख्य ग्रन्थोंका अध्ययन - मनन किया था उनकी नामावलि, उनके जीवन चरितखरूप संस्कृत महाकाव्य विजयप्रशस्ति में दी गई है । उसमें तर्कभाषा, सप्तपदार्थी, वरदराजी आदि प्रकरण ग्रन्थोंके साथ इस प्रमाणमञ्जरी का भी नामनिर्देश किया हुआ है । यथा
तर्कभाषा - सप्तपदार्थी - वरदराजी - प्रमाणमञ्जरी - प्रशस्तपादभाष्य- कणादरहस्यादयः कण्ठ-कुसुमाञ्जलि -किरणावलि - वर्द्धमान-तत्त्वचिन्तामणिपर्यन्ताः शैवप्रमाणशास्त्राणि । ( विजयप्रशस्ति महाकाव्य, सर्ग १, पद्य ९ की टीका ) ऐसा मालूम देता है कि अन्नंभट्ट रचित तर्कसंग्रह नामक इसी विषयके नवीन प्रकरण ग्रन्थकी अधिक सरल और सुबोध रचना होनेके बाद उसके पठन-पाठन का प्रचार बहुत अधिक बढ़ा और प्रमाणमञ्जरी जैसे प्राचीन शैलीके ग्रन्थका अध्ययन विलुप्तसा हो गया । और इस कारण से न्याय-वैशेषिक दर्शनके साहित्यके अभ्यासियों और विवेचकोंको प्रायः इस ग्रन्थके अस्तित्वका भी ज्ञान नहीं मालूम दे रहा है ।
इस वस्तुस्थितिका विचार कर, हमने प्रस्तुत ग्रन्थको राजस्थान सरकार द्वारा आयोजित, इस अभिनव 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' में प्रकट करनेका प्रथम वर्षके प्रारंभिक कार्यक्रममें ही निश्चय किया था । इस ग्रन्थमालाका प्रधान उद्देश्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्राचीन देशभाषामें ग्रथित ऐसे अनेकानेक ग्रन्थों का उद्धार कर प्रकाशमें लानेका है, जो प्रायः विद्वत्समाजके लिये अलब्ध- अज्ञात - अश्रुतपूर्व से हैं और जो विशेष करके राजस्थानके अपरिचित एवं उपेक्षित स्थानोंमें नष्ट-भ्रष्ट दशाको प्राप्त हो कर, कालके कुटिल विवरमें सदा के लिये विलीन हो जानेकी परिस्थितिमें पहुंचे हुए हैं ।
शशधर-मणि
राजस्थान सरकारका यह सत्प्रयत्न भारतीय साहित्य और संस्कृतिके अनुयायी और उपासकोंके लिये अतीव अभिनन्दनीय है । हमारा प्रयत्न है कि भारतके सर्वांगीण विकासक्रमकी जो पञ्चवर्षीय योजना बनी है उसीके अन्तर्गत राजस्थान सरकारकी यह साहित्यिक समुद्धारकी सुयोजना भी एक आदर्शरूप कार्य बने ।
वैशाख शुक्ला ३, सं. २०१०.
भारतीय विद्या भवन, बंबई
जिनविजय मुि
१ देखो, महाविद्याविडम्बन नामक ग्रन्थ ( गायकवाड प्राच्यग्रन्थमाला ) की प्रस्तावना, पृ. २३ की पादटिप्पणी ।