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एक प्राचीन सुन्दर हस्तलिखित प्रति हमें देखनेको मिली। हमने उसकी प्रतिलिपि करवा ली। खोज करने पर, पूना, बडौदा, बंबई, बीकानेर, भावनगर, पाटन, अहमदाबाद आदि स्थानोंके प्राचीन ग्रन्थोंके संग्रहोंमें भी इस ग्रन्थकी अन्यान्य टीकाएँ और उनकी अनेक प्रतियाँ ज्ञात हुई।
राजस्थान सरकारने, हमारी प्रेरणासे प्रेरित हो कर, सन् १९५० में, जब राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरकी स्थापनाका शुभ संकल्प किया और प्रारंभमें इस मन्दिरके संचालनका भार हमारे ही ऊपर रखना निश्चित किया गया, तब हमने प्रथम ही वर्षमें इस संस्थाकी ओरसे प्रकाशित किये जानेवाले, जिन ग्रन्थोंका चुनाव किया उनमें प्रस्तुत प्रमाणमञ्जरीको भी स्थान दिया; और इसके संपादनका कार्य, पण्डितप्रवर विद्यासागर श्रीपट्टाभिरामजी शास्त्री (जो उस समय जयपुरके महाराजा संस्कृत कॉलेजके प्रधानाचार्यके पद पर अधिष्ठित थे) को सौंपा । पण्डितवर्य श्रीपट्टाभिरामजी शास्त्री मीमांसादर्शनके एक प्रौढ विद्वान् हैं और आपने इतःपूर्व अनेक उच्चकोटिके ग्रन्थोंका संपादन - संशोधन आदि कार्य बडी निपुणताके साथ किया है । वर्तमानमें आप कलकत्ता युनिवर्सिटीके संस्कृत-विभागमें प्राध्यापकके पद पर नियुक्त हैं । शास्त्रीजीने प्रस्तुत ग्रन्थका संपादन बडी योग्यता और सावधानताके साथ किया है जिसके लिये हम इनके प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करते हैं और चाहते हैं कि भविष्यमें भी आप इसी तरह ऐसे ही किसी अन्य महत्त्वके ग्रन्थका संपादन - संशोधन कर, इस राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला की शोभावृद्धि करनेमें हमारे सहभागी बनें।
यतर्कभाषामनुभाषते स्म गोवर्द्धनस्तर्ककथासु धीरः । तेनानवद्येन सुधांशुगौरी कीर्तिगुरूणाममृताधिकाऽस्तु ॥ विजयश्रीतनुजन्मा गोवर्धन इति श्रुतः । तर्कानुभाषां तनुते विविच्य गुरुनिर्मितिम् ॥ श्रीविश्वनाथानुजपद्मनाभानुजो गरीयान् बलभद्रजन्मा ।
तनोति तर्कानधिगत्य सर्वान् श्रीपद्मनाभाद् विदुषो विनोदम् ॥ -देखो श्रीरामकृष्ण गोपालभांडारकरकी, सन् १८८२-८३ की संस्कृतसाहित्यकी खोजविषयक रिपोर्टपुस्तक, पृ. २१३.
बलभद्रमिश्र और गोवर्द्धन मिश्र-दोनोंकी रचनाशैली प्रायः समान मालूम देती है । बलभद्रने अपनी तर्कभाषाप्रकाशिकाके अन्तमें जिस प्रकार अपने पिता और माताका नाम निर्देश किया है उसी प्रकार गोवर्द्धन मिश्रने भी अपनी माता और पिताका नामनिर्देश किया है। संभव है कि इस विषयके आधारभूत ग्रन्थोंकी . विशेष रूपसे छानवीन करनेपर, उनमेंसे कुछ विशिष्ट प्रकाश प्राप्त हो सके।
[इन पंक्तियोंका मुद्राक्षर संयोजन हो जाने बाद, राजस्थान पुरातत्त्वमन्दिरके संग्रहके लिये प्राचीन ग्रन्थोंका संचयन करनेवाले पाटणनिवासी पं. अमृतलाल मोहनलालने बलभद्र मिश्रकी तर्कभाषा प्रकाशिका व्याख्या की एक विशेष प्राचीन प्रति हमें उपस्थित की जो वि. सं. १६०७ की लिखी हुई है। इस प्रतिके अन्तमें लिपिकारने अपना परिचय दिया है।
श्रीमत्रिपाठीविष्णुदासतनय - श्रीमद्बलभद्र विरचिता तर्कभाषाप्रकाशिका समाप्ता ॥ संवत् १६०७ चैत्र शु. दि. ९ सोमे। भ० हरिनाथसुत नाकरेण। लिषितमिदं तर्कभाषायाः टिप्पणकं ॥ शुभं भवतु ॥
इस प्रतिकी स्थिति देखनेसे ज्ञात होता है कि यह किसी विशेष प्राचीन कालीन प्रति परसे प्रतिलिपिके रूपमें तैयार की गई है। अतः इसके आधारसे बलभद्रका समय वि. सं १६०० के पूर्वका तो खतः सिद्ध है।