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________________ परीक्षामुख श्रागम ३ उपमान ४ अर्थापत्ति ५ प्रभाव ६ इसप्रकार हैं बस ; सगित आदिके नम्बरवाले, नम्बर तक सौगत श्रादिके प्रमाण समझना चाहिए। इन प्रमाणोंसे व्याप्तिका निर्णय नहीं होसकता है इसका सविस्तर वर्णन दूसरे ग्रन्थोंसे जानना चाहिए । फिर भी चार्वाकका कहना है कि प्रत्यक्षसे नहीं तो अनुमानसे परलोक आदिका निषेध कर देवेंगे। उत्तर यह है :अनुमानादस्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम्॥५८॥ भाषार्थ -- यदि अनुमानसे परलोक श्रादिका निषेध तथा पर की बुद्धि श्रादिकी सिद्धि करोगे, तो दूसरा अनुमान -प्रमाण मानना पड़ेगा । तब तो प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण मानना संख्याभास है; यह बिलकुल स्पष्ट होजायगा । उसीमें दृष्टान्त देते हैं: तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वमप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ॥ ५९॥ 1 1 भाषार्थ -- जैसो की व्याप्तिका निर्णय करनेके लिये सौगतादिक को एक भिन्न ही तर्क नामका प्रमाण मानना पड़ता है क्योंकि उनके मानेहुए प्रमाण, व्याप्तिका निणर्य नहीं करसकते हैं । जिसको संक्षपेस पहले कहचुके हैं । यदि कोई कहे कि तर्कको मानकर भी प्रमाण नहीं मानेंगे; किन्तु श्रप्रमाण मांन लेवेंगे। तब तो दूसरा प्रमाण नहीं मानना पड़ेगा, इसलिए दृष्टान्त विषम है ? उत्तर यह है, कि “अप्रमाणस्याव्यस्थापकत्वात्" अर्थात् जो स्वयं अप्रमाण ( झूठा ) होता है वह ठीक २ पदार्थों की व्यवस्था अर्थात् पदार्थोंका निर्णय नहीं करसकता है |
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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