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________________ भाषार्थ—सांख्य कृतकता (कृतकपने ) को मानता ही नहीं है क्योंकि उसके यहां आविर्भाव और तिरोभर्भाव ही प्रसिद्ध है । विरुद्धहेत्वाभासका स्वरूप और उदाहरण: विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २६॥ भाषार्थ-साध्यसे विपरीतके साथ जिसहेतुकी व्याप्ति हो उस हेतुको विरुद्धहेत्वाभास कहते हैं जैसे शब्द अपरिणामी होता है क्योंकि वह कृतक अर्थात् कियाजाता है । इस हेतुकी अपरिणामी पनेसे विपरीत परिणामीपनेके साथ व्याप्ति है । भावार्थ-इस अनुमानमें अपरिणामी, साध्य है परन्तु कृतकत्वहेतु उसकेसाथ व्याप्ति नहीं रखता है किन्तु उससे उल्टे परिणामी पनेके साथ व्याप्ति रखता है इसलिए वह विरुद्ध है। अनैकान्तिकहेत्वाभासका स्वरूप:विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥ ३० ॥ भाषार्थ-जो हेतु, पक्ष और सपक्षमें रहता हुआ विपक्ष में भी रहे उसको अनैकान्तिक कहते हैं। ' भावार्थ-संदिग्धसाध्यवाले धर्मीको पक्ष कहते हैं तथा साध्यके समानधर्मवाले धर्मीको सपक्ष कहते हैं और साध्यसे विरुद्ध धर्मवाले धर्मीको विपक्ष कहते हैं। बस; जो हेतु इन तीनोंमें रहता है उसे अनेकान्तिक व्यभिचारी-कहते हैं । उसके दो भेद हैं एकशंकितविपक्षवृत्ति दूसरा निश्चितविपक्षवृत्ति ।
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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