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________________ ५८ परीचामुख ... यहां कोई कहता है कि जो परंपरासे साधन होसकता है उसको भी साधनोंमें गिनाना चाहिए । उत्तर यह है:परम्परयासम्भवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम॥१०॥ भाषार्थ-परम्परासे, जो साधन होसकते हैं उनका उपयुक्त साधनोंमें ही अन्तर्भाव करना चाहिए। उसीको उदाहरण-द्वारा पुष्ट करते हैं:अभद्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥ ९१ ॥ भाषार्थ-इस चक्रपर शिवक होगया है क्योंकि स्थास मौजूद है । भावार्थ--यह स्थासरूपहेतु परम्परासे शिवकका कार्य है। वह ऐसे है, कि जब कुंभार घटको बनाता है तब घटके पहले मिट्टी की बहुतसी पर्यायें होजाती हैं बादमें घट होता है उन्हीं पर्यायोंमें से ये पर्यायें हैं जिनमें पहले शिवक, बादमें शिवकका कार्य छत्रक होता है उसके बादमें स्थास होता है इसलिए स्थास, शिवकका परम्परासे कार्य है साक्षात् नहीं । क्योंकि साक्षात्कार्य छत्रक है। यह हेतु अविरुद्धकार्योपलब्धिमें गर्भित होता है:कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ९२ ॥ भाषार्थ-कार्यके कार्यरुपहेतुका-परम्पराकार्यहेतुका-अविरुद्धकार्योपलब्धिमें अन्तर्भाव होता है। उसीको उदाहरणसे पुष्ट करते हैं :नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीड़नं मृगारिसंशब्दनात कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥९॥
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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