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वैशेषिकमत- विचार |
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इस प्रकार ईश्वर से सत्वादिक धर्मों को सर्वथा भिन्न और उसका कुछ भी निज स्वरूप न मानने में कोई भी व्यवस्था नहीं बैठती, इस लिये -: स्वतःसतो यथा सत्वसमवायस्तथास्तु सः । द्रव्यत्वात्मत्वबोद्धृत्वसमवायोऽपि तत्त्वतः ॥ ७१ ॥ द्रव्यस्यैवात्मनो बोद्धुः स्वयं सिद्धस्य सर्वदा । .... नहि स्वतोऽतथाभूतस्तथात्वसमवायभाक् ॥७२॥ ★
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ईश्वर को स्वरूप से भी सत, द्रव्य, आत्मा व ज्ञाता मानना चाहिये और ईश्वर में, ईश्वर से कथंचित् अभिन सत्वादिक धर्म भी मानने चाहिये, फिर इन धर्मो का ईश्वर के साथ सम्बन्ध मानने में कोई भी प्रश्न नहीं उठ सकता, चाहे उस सम्बन्ध का नाम आप समवाय ही रखलें, चाहे हमारे कहे हुए तादात्म्य शब्द से उस सम्बन्ध का व्यवहार करें, हमको कोई उसमें विवाद नहीं है ।
स्वयं ज्ञत्वे च सिद्धेऽस्य महेशस्य निरर्थकं । ज्ञानस्य समवायेन ज्ञत्वस्य परिकल्पनम् ॥७३॥ तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानतादात्म्यमृच्छतः । कथञ्चिदीश्वरस्याऽस्ति जिनेशत्वमसंशयम् ||७४||