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________________ जब तक लिङ्गका ज्ञान न होगा तब तक अनुमान ही नहीं हो सकता। इसीप्रकार पक्षके वचनरूप प्रतिज्ञाको भी अवश्य कहना चाहिये, नहीं तो साध्यका प्रयोग न करनेसे श्रोताको साध्यमें सन्देह बना रहेगा, और अत एव इष्ट साध्यका निश्चय न होनेसे अनुमान भी नहीं होगा। ऐसा कहा है कि "एतद्वयमेवानु. मानाङ्गम्" अर्थात् वादमें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अनुमानके अर्थात् परार्थानुमानके अङ्ग माने गये हैं । यहांपर जो निश्चयार्थक 'एव'शब्दका उच्चारण किया है उससे यह सूचित होता है कि उदाहरणादिक अङ्गोंकी वादमें आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्युत्पन्नका ही वादमें अधिकार है और जो व्युत्पन्न है वह उस अर्थको प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंसे ही जान सकता है कि जो अर्थ उदाहरणादिकसे जाना जाता है । जो अर्थ एकसे जाना जा सकता है उसीकेलिये दूसरा तीसरा प्रयोग करनेसे पुनरुक्ति दोष आता है। ___ स्यादेतत् । प्रतिज्ञाप्रयोगेऽपि पौनरुक्त्यमेव, तदभिधेयस्य पक्षस्यापि प्रस्तावादिना गम्यमानत्वात् । तथाच, लिङ्गवचनलक्षणो हेतुरेक एव वादे प्रयोक्तव्यः। इति वदन् बौद्धः पशुरात्मनो दुर्विदग्धतामुद्घोषयति । हेतुमात्रप्रयोगे व्युत्पनस्यापि साध्यसन्देहानिवृत्तेः । तसादवश्यं प्रतिज्ञा प्रयोक्तव्या । तदुक्तं “साध्यसन्देहापनोदार्थ गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम्" इति । तदेवं वादापेक्षया परार्थानुमानस्य प्रतिज्ञाहेतुरूपमवयवद्वयमेव, न न्यूनं, नाधिकमिति स्थितम् । प्रपञ्चः पुनरवयवविचारस्य पत्रपरीक्षायामीक्षणीयः। (शङ्का) प्रतिज्ञाका प्रयोग करनेसे भी तो पुनरुक्ति आती ही है; क्योंकि प्रतिज्ञाके प्रयोगसे जिस पक्षका निरूपण किया जाता है वह प्रकरण आदिके द्वारा भी जाना जा सकता है । इसलिये न्या. दी. ६
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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