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________________ ७१ यहांपर धुआँ है । यद्यपि स्वार्थानुमान ज्ञानरूप है तो भी उसका शब्दद्वारा यह उल्लेख करदिया है । जैसे कि "यह घट है” इत्यादि शब्दोंद्वारा प्रत्यक्षका उल्लेख होता है । अर्थात् इस उल्लेखसे यह समझना चाहिये कि जिसको स्वार्थानुमान होता है वह "यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि यहांपर धुआँ है" इस प्रकारसे जानता है । यह स्वार्थानुमानका स्वरूप समझना । अस्य च स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि - धर्मी, साध्यं, साधनं च । तत्र साधनं गमकत्वेनाङ्गम् । साध्यं तु गम्यत्वेन । धर्मी पुनः साध्यधर्माधारत्वेन । आधारविशेषनिष्ठतया हि साध्यसिद्धिरनुमानप्रयोजनं, धर्ममात्रस्य तु व्याप्तिनिश्चयकाल एव सिद्धत्वात्, यत्र यत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वमिति । 1 इस स्वार्थानुमानके तीन अङ्ग हैं, धर्मी, साध्य, और साधन । इनमेंसे साधन तो साध्यका ज्ञान करानेवाला होने से अनुमानका अङ्ग है तथा साध्य गम्य है इसलिये अङ्ग है । एवं धर्मी साध्यरूप धर्मका आधार है इसलिये अङ्ग है । क्योंकि किसी एक आधार में साध्यकी सिद्धि करना ही अनुमानका प्रयोजन ( फल ) है । केवल धर्मकी (साध्यकी ) सिद्धिमात्र विना आधार करना प्रयोजन नहीं है, क्योंकि “जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है" इस प्रकार व्याप्तिका निश्चय जिस समय हुआ था उसी समय उस धर्ममात्रका तो निश्चय हो ही चुका था । पक्षी हेतुरित्यङ्गद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात् । तथाच स्वार्थानुमानस्य धर्मिसाध्यसाधनभेदात्रीयङ्गानि पक्षसाधनभेदादङ्गद्वयं चेति सिद्धं विवक्षाया वैचित्र्यात । पूर्वत्र हि धर्मिधर्मभेदविवक्षा | उत्तरत्र तु तत्समुदायविवक्षा । स एव धर्मित्वेनाभिमतः प्रसिद्ध एव । तदुक्तमभियुक्तैः “प्रसिद्धो धर्मों" इति ।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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