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________________ ६४ माननेकी क्या आवश्यकता है ? (समाधान) इस प्रकार जो शङ्का करते हैं वे भी न्यायके मार्गसे अनभिज्ञ हैं । क्योंकिः "सहकारिसहस्रसमवधानेऽप्यविषये प्रवृत्तिन घटते" इत्युक्तत्वात् । तस्मात्प्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहणमसमञ्जसम् । इदं समजसं-सरणं प्रत्यभिज्ञानं भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्षं च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति ययाप्तिग्रहणसमर्थमिति तर्कश्च स एव । अनुमानादिकं तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसम्भाव्यमेव । यह बात हम पहले कहचुके हैं कि "हज़ार सहकारी कारणों के मिलनेपर भी अविषयमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती" इस लिये प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ग्रहण करना अयुक्त है । हां, यह ठीक है कि स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तथा भूयोदर्शनरूप प्रत्यक्ष मिलकर इस प्रकारके एक ज्ञानको उत्पन्न करते हैं कि जो व्याप्तिको ग्रहण करसकता है; उसीको तर्क कहते हैं । अनुमानादिकोंसे व्याप्तिका ग्रहण होना तो असम्भव ही है। बौद्धास्तु प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पो व्याप्तिं गृह्णातीति मन्यन्ते । त एवं प्रष्टव्याः, स हि विकल्पः किमप्रमाणमुत प्रमाणमिति । यद्यप्रमाणं कथं नाम तगृहीतायां व्याप्तौ समाश्वासः? अथ प्रमाणं किं प्रत्यक्षमथवानुमानम् ? न तावत्प्रसक्षमस्पष्टप्रतिभासत्वात् , नाप्यनुमानं लिङ्गदर्शनाद्यनपेक्षत्वात् । ताभ्यामन्यदेव किश्चित्प्रमाणमिति चेदागतस्तर्हि तर्कः । तदेवं ताख्यं प्रमाणं निर्णीतम् । इदानीमनुमानमनुवर्ण्यते । "प्रत्यक्षके पीछे होनेवाला विकल्पज्ञान व्याप्तिको ग्रहण करता है।" ऐसा बौद्ध मानते हैं । परन्तु इसपर उनसे यह पूछना चाहिये कि वह विकल्प अप्रमाण है अथवा प्रमाण?
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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