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________________ ज्ञानं जायत इति । भाषादिविशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः। यथा दाक्षिणात्य एवायमिति । कालान्तराविसरणयोग्यतया तस्यैव ज्ञानं धारणा । यद्वशादुत्तरकालेपि स इत्येवं सरणं जायते । (२) अवग्रहके द्वारा जानेहुए पदार्थमें होनेवाले संशयको दूर करनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं। जैसे कि अवग्रहसे निश्चित पुरुषरूप अर्थमें इस प्रकार संशय होनेपर कि 'यह पुरुष दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य (उत्तरमें रहनेवाला)?' इस संशयके दूर करनेके लिये उत्पन्न होनेवाले 'यह दाक्षिणात्य होना चाहिये' इसप्रकारके ज्ञानको ईहा कहते हैं । (३) भाषा आदिकका विशेष ज्ञान होनेपर उसके यथार्थवरूपको पूर्वज्ञान (ईहा) की अपेक्षा विशेषरूपसे दृढ़ करनेवाले ज्ञानको अवाय कहते हैं। जैसे कि 'यह दाक्षिणात्य ही है' इसप्रकारका ज्ञान होना । (४) उसी पदार्थका इस योग्यतासे (दृढरूपसे) ज्ञान होना कि जिससे कालान्तरमें भी उस विषयका विस्मरण न हो उसको धारणा कहते हैं। अर्थात् जिसके निमित्तसे उत्तरकालमें भी 'वह' ऐसा स्मरण हो सके उसको धारणा कहते हैं। ननु पूर्वपूर्वज्ञानगृहीतार्थग्राहकत्वादेतेषां धारावाहिकवदप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्न विषयभेदेनागृहीतग्राहकत्वात् । तथाहि । योऽवग्रहस्य विषयो नासावीहायाः। यः पुनरीहाया नायमवायस्य, यश्चावायस्य नैष धारणाया इति परिशुद्धपतिभानां मुलभमेवैतत् । तदेतदवग्रहादिचतुष्टयमपि यदेन्द्रियेण जन्यते तदेन्द्रियप्रत्यक्षमित्युच्यते यदा पुनरनिन्द्रियेण तदानिन्द्रियप्रत्यक्षं गीयते । __ 'ईहादिकज्ञान, पूर्व पूर्व अवग्रहादिक ज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थको ही विषय करते हैं या जानते हैं इस लिये ये
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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