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के माने हुए प्रमाणलक्षणको भ्रमसे वास्तविक लक्षण मानरहे हैं, उनपर कुछ अनुग्रह किया जाता है । बौद्ध, अविसंवादि शानको प्रमाण मानते हैं । अर्थात् 'संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप विसंवादसे रहित ज्ञान, प्रमाण है' ऐसा बौद्धमतावलम्बी मानते हैं । परन्तु यह उन बौद्धोंका लक्षण असम्भवी होनेसे वास्तविक लक्षण नहीं है। क्योंकि, उन्होंने दो ही प्रमाण माने हैं - एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान । ऐसा ही उनके न्यायबिन्दु ग्रंथमें कहा है कि "द्विविधं सम्यग्ज्ञानं प्रत्यक्षमनुमानं च" अर्थात् सम्यग्ज्ञान दो प्रकारका है - प्रत्यक्ष और अनुमान । इन दोनोंमेंसे प्रत्यक्ष अविसंवादी नहीं होसकता, क्योंकि वह निर्विकल्पक है- अर्थात् उसमें घटपटादिक पदार्थ विशेषरूपसे प्रतिभासित नहीं होते । अत एव वह (प्रत्यक्ष ) अपने विषयका निश्चायक भी नहीं है। और अपने विषयका निश्चायक नहीं है इसीसे वह समारोपका विरोधी भी नहीं है। यदि अनुमानको प्रमाण माना जाय तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह ( अनुमान ) भी उनके मतानुसार केवल अपरमार्थभूत ( अवास्तविक ), अनेक क्षणस्थायी, स्थिरस्थूलादि-धर्मविशिष्ट सामान्यको विषय करनेवाला है । अत एव जो अवस्तुविषयक है वह प्रमाण नहीं हो सकता ।
“अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम्" इति भाट्टाः । तदप्यव्याप्तं तैरेव प्रमाणत्वेनाभिमतेषु धारावाहिकज्ञानेष्वनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकत्वाभावात् । उत्तरोत्तरक्षणविशेपविशिष्टार्थावभासकत्वेन तेषामनधिगतार्थनिश्चायकत्वं नाशङ्कनीयं, क्षणानामतिसूक्ष्माणामालक्षयितुमशक्यत्वात् ।
अनधिगत अर्थात् जिसका पहले ज्ञान न हुआ हो और जो तथाभूत ( यथार्थ ) पदार्थका निश्चय करनेवाला हो उस ज्ञानको भट्टमतानुयायी प्रमाण मानते हैं । परन्तु इसमें अव्याप्ति