SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२९ कथंचित् एक ही है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे कथंचित् अनेकरूप भी है। यदि क्रमसे दोनों नयोंकी अपेक्षा की जाय तो कथंचित् एक भी है और अनेक भी है। युगपदुभयनयाभिप्रायेण स्यादवक्तव्यम् । युगपत्प्राप्तेन नयद्वयेन विविक्तस्वरूपयोरेकत्वानेकत्वयोर्विमर्शाभावात् । न हि युगपदुपनतेन शब्दद्वयेन घटस्य प्रधानभूतयो रूपत्वरसत्वयोर्विविक्तस्वरूपयोः प्रतिपादनं शक्यम् । तदेतदवक्तव्यस्वरूपं तत्तदभिप्रायैरुपनतेनैकत्वादिना समुचितं स्यादेकमवक्तव्यं, स्यादनेकमवक्तव्यं, स्यादेकानेकमवक्तव्यमिति स्यात् । सैषा नयविनियोगपरिपाटी सप्तभङ्गीत्युच्यते । भङ्गशब्दस्य वस्तुस्वरूपभेदवाचकत्वात् । सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति सिद्धेः। एक कालमें दोनों स्वभावोंकी अपेक्षा प्रधानकर लक्ष्य करना सो कथंचित् अवक्तव्य नय है; क्योंकि भिन्न भिन्न स्वरूपवाले एकत्व और अनेकत्वका, एक कालमें दो शब्दोंके द्वारा उञ्चा. रण तथा विचार नहीं हो सकता । यह संभव नहीं है कि घटके प्रधानभूत रूप और रस गुणका जिनका स्वरूप परस्परमें भिन्न है, एक कालमें दो शब्दों के द्वारा प्रतिपादन हो सके यही अवक्तव्य नयका स्वरूप है। वस्तु सर्वथा ही अवक्तव्य नहीं है । यदि उसी समय भेदादि धर्मोंके अभिप्रायोंमेंसे किसी एक विवक्षित धर्मका भी प्रयोग किया जाय तो वह द्रव्य कथं। चित् एक और अवक्तव्य है तथा अनेक और अवक्तव्य है। अर्थात् द्रव्यार्थिक नय और युगपत् दोनों नयोंके प्रयोगकी अपेक्षासे वस्तु एक और अवक्तव्य है । इसी प्रकार पर्यायार्थिक नय और युगपत् दोनों नयोंकी अपेक्षासे अनेक और अवक्तव्य है। इसी प्रकार दोनों नयोंकी क्रमसे और युगपत् प्रवृत्तिकी न्या. दी० ९
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy