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११२ वहां वहां अग्नि भी नहीं होती, जैसे कि महाहदमें । इस प्रकारसे यहां व्याप्य और व्यापकका विपरीतरूपसे कथन किया गया है। __ मनु किमिदं व्याप्यं व्यापकं नामेति चेदुच्यते । साहचर्यनियमरूपां व्याप्तिक्रियांप्रति यत्कर्म तद्व्याण्यम् । विपूर्वादापेः कर्मणि ण्यद्विधानाद्व्याप्यमिति सिद्धत्वात् । तत्तुव्याप्यं धू. मादि। एनामेव व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्तु तद्व्यापकम् । व्यापेः कर्तरि वुलि सति प्यापकमिति सिद्धेः । एवं सति धूममग्निव्यानोति, यत्र धूमो वर्तते तत्र नियमेनाग्निर्वर्तते इति यावत्सर्वत्र धृमवति नियमेनाग्निदर्शनात् । धृमस्तु न तथानि व्याप्नोति, तस्याङ्गारावस्थस्य धूमं विनापि वर्तमानत्वात् । यत्रानिर्वर्तते तत्र धृमोपि नियमेन वर्तते इत्यसम्भवात् । - (प्रश्न)-व्याप्य किसको कहते हैं और व्यापक किसको कहते हैं ? (उत्तर)-साथ रहनेके नियमरूप व्याप्तिक्रियाका जो कर्म हो वह व्याप्य होता है, क्योंकि यह व्याप्य शब्द विपूर्वक आए धातुसे कर्ममें ण्यत् प्रत्ययके करनेसे सिद्ध हुआ है । ऐसा व्याय धूमादिक ही हो सकता है । इसी व्याप्त होनेरूप क्रियामें जो ब्यातिक्रियाका कर्ता हो उसको व्यापक कहते हैं, क्योंकि यह व्यापक शब्द विपूर्वक आप् धातुसे काम ण्वुल् प्रत्ययके करनेसे सिद्ध होता है । इससे अग्नि धूमको व्याप्त करके रहती है । जहां जहां धूम होगा वहां वहां नियमसे अग्नि होती है । अत एव सभी धूमयुक्त स्थानोंमें नियमसे अग्नि देखनेमें आती है । अग्निको धूम इस प्रकार व्याप्त नहीं करता, क्योंकि अङ्गार अवस्थाकी अग्नि धूमके विना ही देखनेमें आती है । इस लिये यह असम्भव है कि जहांपर अग्नि हो वहां नियमसे धूम हो। __ नन्वाईन्धनमग्निं व्याप्नोत्येव धूम इति चेद् ओमिति महे । यत्र यत्राविच्छिन्नमूलो धूमस्तत्र तत्रागिरिति यथा