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________________ १०२ - द्वितीयस्तु निषेधसाधकाख्यः । विरुद्धोपलब्धिरिति तस्यैव नामान्तरम् । स यथा, नास्य मिथ्यात्वमास्तिक्यान्यथानुपप-. तेरित्यत्रास्तिक्यम् । आस्तिक्यं हि सर्वज्ञवीतरागप्रणीतजीवादितत्त्वार्थरुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न सम्भवतीति मिथ्यात्वाभावं साधयति । यथा वा, नास्ति वस्तुनि सर्वथैकान्तः, अनेकान्तात्मकत्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्रानेकान्तात्मकत्वम् । अनेकान्तात्मकत्वं हि वस्तुन्यबाधितप्रतीतिविप. यत्वेन प्रतिभासमानं सौगतादिपरिकल्पितसर्वथैकान्ताभावं साधयत्येव । __ दूसरे भेदका नाम निषेधसाधक है, जिसको कि विरुद्धोपलब्धि नामसे भी कहते हैं । जैसे इस प्राणीके मिथ्यात्व नहीं है। क्योंकि यदि मिथ्यात्व होता तो आस्तिक्य नहीं हो सकता था। यहांपर आस्तिक्य हेतु निषेधसाधक है । सर्वज्ञ वीतरागदेवके द्वारा प्रणीत जीवादिक तत्वोंमें रुचिके होनेको आस्तिक्य कहते हैं । यह आस्तिक्य मिथ्यादृष्टिमें नहीं रह सकता, इसलिये मिथ्यात्वके अभावको सिद्ध करता है। - अथवा वस्तु सर्वथा एकान्तस्वरूप नहीं है क्योंकि यदि सर्वथा एकान्तस्वरूप ही हो तो अनेकान्तात्मकता नहीं वन सकती। यहांपर अनेकान्तात्मकता हेतु निषेधसाधक है। निर्वाध सम्यग्ज्ञानका विषय होनेसे वस्तुमें सुप्रसिद्ध होता हुआ यह अनेकान्तात्मकत्वहेतु, बौद्धादिकोंके द्वारा कल्पित किये गये सर्वथा एकान्तके अभावको सिद्ध करता है। ननु किमिदमनेकान्तात्मकत्वं ? यदलाद्वस्तुनि सर्वथैकान्ताभावः साध्यते इति चेदुच्यते । सर्वसिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपत्वमित्येवमादि
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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