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________________ में ही 'पाश्चरूप्य' हेतुलक्षण घटित होता है, औरोंमें नहीं; क्योंकि केवलान्वयीमें विपक्षव्यावृत्ति नहीं है और केवलव्यतिरेकीमें सपक्षसत्त्व नहीं है । इस प्रकार नैयायिकमतके अनुसार भी हेतुके पाश्चरूप्यमय लक्षणमें व्यभिचार आता है। किन्तु अन्य. थानुपपत्तिरूप हेतुका लक्षण लक्ष्यभूत सम्पूर्ण हेतुओंमें व्याप्त होकर रहता है इसलिये हेतुका वह लक्षण उचित है । क्योंकि अन्यथानुपपत्तिके न होनेसे हेतु साध्यका गमक कहीं भी नहीं होसकता। यदुक्तमसिद्धादिदोषपञ्चकनिवारणाय क्रमेण पश्चरूपाणीति तन्न, अन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चितत्वस्यैवासदभिमतलक्षणस्य तनिवारकत्वसिद्धेः। तथा हि, साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वं खलु हेतोर्लक्षणम् , साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरिति वचनात् । न चैतदसिद्धस्यास्ति, शब्दानित्यत्वसाधनायाभिप्रेतस्य चाक्षुषत्वादेः स्वरूपस्यैवाभावे कुतोन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्तिः । यह जो कहा था कि “असिद्धादि पांचों दोषोंके दूर करनेके लिये हेतुके पांचों रूपोंका क्रमसे निरूपण किया है" सो ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यथानुपपत्तिस्वरूपद्वारा निश्चित होनेरूप हमारे माने हुए हेतुलक्षणसे ही उन असिद्धादि दोषोंका निवारण हो सकता है । वह किसतरहसे होसकता है सो दिखाते हैं । 'साध्यके विना अकेला न रहने'रूप जो अविनाभावका निश्चय होना वही हेतुका लक्षण है। क्योंकि ऐसा वचन है कि “जो साध्याविनाभावरूपसे निश्चित हो अर्थात् जिसका यह निश्चय हो कि यह साध्यके विना नहीं रहता उसको हेतु कहते हैं। इस प्रकार असिद्ध हेत्वाभासका अन्यथा नुपपत्तिरूपसे निश्चय नहीं हो सकता; क्योंकि शब्दका अनित्यत्व सिद्ध करनेके लिये वहांपर मानेहुए चाक्षुषत्व हेतुका
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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