SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पय रूपोंसे युक्त होनेके कारण हेतुके समान मालूम होते हैं"। नैयायिकोंका यह सभी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कृत्तिको दयरूप हेतु, पक्षधर्मरूप न होनेपर भी शकटोदय साध्यका निश्चय कराता है । इसलिये हेतुके पाश्चरूप्य लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है। किं च केवलान्वयिकेवलव्यतिरेकिणोर्हेत्वोः पाश्चरूप्याभावेपि गमकत्वं तैरेवाङ्गीक्रियते। तथा हि । ते मन्यन्ते, त्रिविधो हेतुः-अन्वयव्यतिरेकी,केवलान्वयी,केवलव्यतिरेकी चेति । तत्र पश्चरूपोपपन्नोऽन्वयव्यतिरेकी, यथा शब्दोऽनित्यो भवितुमहेति कृतकत्वात् । यद्यत्कृतकं तत्तदनित्यं, यथा घटः । यद्यदनित्यं न भवति तत्तत्कृतकं न भवति, यथाऽऽकाशम् । तथा चायं कृतकः, तस्मादनित्य एवेति । अत्र शब्दं पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते, तत्र कृतकत्वं हेतुः । तस्य पक्षीकृतशब्दधर्मत्वात्पक्षधर्मत्वमस्ति । सपक्षे घटादौ वर्तमानत्वात् , विपक्ष गगनादाववर्तमानत्वादन्वयव्यतिरेकित्वम् । दूसरा दोष यह कि, केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी हेतुको पाञ्चरूप्यलक्षणसे रहित होनेपर भी खयं उन्होंने (नैयायिकोंने) साध्यका साधक माना है। अर्थात् उनका ऐसा सिद्धान्त है कि हेतुके तीन भेद हैं-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी। जिसमें हेतुके पांचों स्वरूप पाये जायँ उसको अन्वयव्यतिरेकी कहते हैं । जैसे कि शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक (कृत्रिम) है । जो जो कृतक होता है वह वह अनित्य होता है, जैसे कि घट । जो अनित्य नहीं होता वह कृतक भी नहीं होता, जैसे आकाश । शब्द भी कृतक है, इसलिये अनित्य ही है। यहांपर शब्दको पक्ष बनाकर कृतकत्व हेतुसे अनित्यताकी
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy