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[ चतुर्थ परिच्छेद
अर्थ – - शब्द प्रधान रूप से निषेध का ही बाचक है, यह एकान्त कथन भी पूर्वोक्त न्याय से खण्डित हो गया ।
विवेचन - शब्द यदि प्रधान रूप से निषेध का ही वाचक माना जाय तो उससे विधि का ज्ञान कभी नहीं होगा । विधि अप्रधान रूप से ही शब्द से मालूम होती है, यह कथन भी मिथ्या है, क्योंकि जिसे प्रधान रूप से कभी कहीं नहींजाना उसे से गौण रूप में भी नहीं जा जान सकते ।
तृतीय भंग के एकांत का निराकरण
क्रमादुभयप्रधान एवायमित्यपि न साधीयः ॥ २७ ॥ अस्य विधिनिषेधान्यतरप्रधानत्वानुभवस्याऽप्यबाध्यमानत्वात् ।। २८ ।।
अर्थ - शब्द क्रम से विधि-निषेध का ( तीसरे भंग का ) ही प्रधान रूप से वाचक है, ऐसा कहना भी समीचीन नहीं है ।
क्योंकि शब्द अकेले विधि का और अकेले निषेध का प्रधान रूप से वाचक है, इस प्रकार होने वाला अनुभव मिथ्या नहीं है |
विवेचन – शब्द सिर्फ़ तीसरे भंग का वाचक है, इस एकान्त का यहाँ खण्डन किया गया है, क्योंकि शब्द तीसरे भंग की तरह प्रथम और द्वितीय का भी वाचक है, ऐसा अनुभव होता है ।
चतुर्थ भंग के एकान्त का निराकरण
युगपद्विध्यात्मनोऽर्थस्याऽवाचक एवासाविति चन
चतुरस्रम् ॥ २६ ॥