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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
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चाहिए । प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही जानता है अतः स्वरूप की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण होते हैं; बाह्य पदार्थों की अपेक्षा कोई ज्ञान प्रमाण होता है, कोई अप्रमाण होता है ।
प्रमाण की उत्पत्ति और ज्ञप्ति तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्च ॥१६॥ ___अर्थ-प्रमाणता और अप्रमाणता की उत्पत्ति परतः ही होती है तथा प्रमाणता और अप्रमाणता की ज्ञप्ति अभ्यास दशा में स्वतः होती है और अनभ्यास दशा में परतः होती है।
विवेचन-जिन कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है उन कारणों के अतिरिक्त दूसरे कारणों से प्रमाणता का उत्पन्न होना परतः उत्पत्ति कहलाती है। जिन कारणों से ज्ञान का निश्चय होता है उन्हीं कारणों से प्रमाणता का निश्चय होना स्वतः ज्ञप्ति कहलाती है और दूसरे कारणों से निश्चय होना परतः ज्ञप्ति कहलाती है।
उत्पत्ति की अपेक्षा ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणतादोनों ही पर निमित्त से उत्पन्न होती हैं। जब किसी वस्तु के स्वरूप को न जानने वाले पुरुष को कोई विद्वान् उसका स्वरूप समझाता है तो वह उस वस्तु के स्वरूप को समझने लगता है। यहाँ समझाने वाले का ज्ञान यदि निर्दोष है तो उस समझने वाले पुरुष के. ज्ञान में भी प्रमाणता आ जाती है और यदि समझाने वाले का ज्ञान सदोष है तो उसके ज्ञान में भी अप्रमाणता आ जाती है । इस प्रकार उस नवीन पुरुष के ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता-दोनों ही की उत्पत्ति पर निमित्त से होती है।