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अष्टम परिच्छेद
तत्रैव द्वयंगस्तुरीयस्य ॥ १२ ॥
अर्थ-स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु वादी का चौथे प्रतिवादीकेवली के साथ दो अङ्ग वाला वाद होता है। . .
'विवेचन केवली भगवान् , तत्त्व-निर्णय अवश्य कर देते हैं अतएव इस वाद में सभ्यों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।
तृतीये प्रथमादीनां यथायोगं पूर्ववत् ॥ १३ ॥
अर्थ-परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु क्षायोपशमिकज्ञानी वादी हो तो, प्रथम, द्वितीय आदि प्रतिवादियों का पहले के समान यथायोग्य वाद होता है।
विवेचन यदि तीसरा वादी हो तो उसके साथ प्रथम प्रतिवादी का चतुरंगवाद होगा, द्वितीय और तृतीय प्रतिवादी का कभी दो अङ्ग वाला, कभी तीन अङ्ग वाला वाद होगा और चतुर्थ प्रतिवादी के साथ दो अङ्ग वाला ही वाद होगा।
तुरीये प्रथमादीनामेवम् ॥ १४ ॥
अर्थ-परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु केवली वादी हों तो प्रथम प्रतिवादी के साथ चतुरंग और द्वितीय तथा तृतीय प्रतिवादी के साथ दो अङ्ग वाला वाद ही होता है।
वाद के चार अंग वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतयश्चत्वार्यङ्गानि ॥ १५ ॥
अर्थ-वाद के चार अंग होते हैं-वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति ।