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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक] (१५८) अयं द्विविधः क्षायोपशमिकज्ञानशाली केवली च ॥८॥ अर्थ-तत्त्वनिर्णिनीषु दो प्रकार के हैं—(१) स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु और (२) परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु ।। शिष्य आदि स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु हैं। गुरु आदि परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु हैं । परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु भी दो प्रकार के होते हैं। क्षायोपशमिकज्ञानी और केवली ॥ विवेचन-अपने आपके लिए तत्त्वबोध की इच्छा रखने वाले स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु कहलाते हैं और दूसरे को तत्त्व-बोध कराने की इच्छा रखने वाले परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु कहलाते हैं । स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु शिष्य, मित्र या और कोई सहयोगी होता है और परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु गुरु, मित्र या अन्य सहयोगी हो सकता है। इस प्रकार वाद का प्रारम्भ करने वाले चार प्रकार के होते हैं(१) जिगीषु (२) स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु (३) क्षायोपशमिकज्ञानी परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु और (४) केवलीपरत्रतत्त्वनिर्णिनीषु । -प्रत्यारम्भक एतेन प्रत्यारम्भकोऽपि व्याख्यातः ॥ ६ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त कथन से प्रत्यारम्भक की भी व्याख्या होगई। विवेचन–प्रारम्भक के चार भेद बताये हैं, वही चार भेद प्रत्यारम्भक के भी समझने चाहिए । इस प्रकार एक-एक प्रारम्भक के साथ चारों प्रत्यारम्भकों का विवाद हो तो वाद के सोलह भेद हो सकते हैं। किन्तु जिगीषु का स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु के साथ, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु का जिगीषु के साथ, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु का स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु के साथ और केवली का केवली के साथ वाद होना सम्भव नहीं है, इसलिए चार भेद कम होने से वाद के
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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