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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक (१५२) पदार्थ को भिन्न मान लेता है। इस प्रकार नय क्रमश: सूक्ष्मता की ओर बढ़ते हैं और एवंभूतनय सूक्ष्मता की पराकाष्ठा कर देता है। - नयसप्तभंगी नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यांसप्तभंगीमनुव्रजति ॥ ५३॥ ___अर्थ-नय-वाक्य भी अपने विषय में प्रवृत्ति करता हुश्रा विधि और निषेध की विवक्षा से सप्तभंगी को प्राप्त होता है। विवेचन-विकलादेश, नयवाक्य कहलाता है। उसका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जैसे विधि और निषेध की विवक्षा से प्रमाण-सप्तभंगी बनती है उसी प्रकार नय की भी सप्तभंगी बनती है। नय-सप्तभंगी में भी 'स्यात्' पद और "एव' लगाया जाता है । प्रमाण-सप्तभंगी सम्पूर्ण वस्तु के स्वरूप को प्रकाशित करती है और नय-सप्तभङ्गी वस्तु के एक अंश को प्रकाशित करती है। यही दोनों में अन्तर है। नय का फल प्रमाणवदस्य फलं व्यवस्थापनीयम् ॥५४॥ अर्थ-प्रमाण के समान नय के फल की व्यवस्था करना चाहिए। विवेचन-प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति होना बताया गया है, वही फल नय का भी है। किन्तु प्रमाण से वस्तु सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति होती है और नय से वस्तु के अंश-सम्ब
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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