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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक] . (१४६) का भेद न होने पर भी केवल पर्यायवाची शब्दों के भेद से ही पदार्थ में भेद मान लेता है। - इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द-तीनों एक इन्द्र के वाचक हैं किन्तु समभिरूढ़ नय इन शब्दों की व्युत्पत्ति के भेद पर दृष्टि दौड़ाता है और कहता है कि जब तीनों शब्दों की ब्युत्पत्ति पृथक्-पृथक् है तब तीनों शब्दों का वाच्य पदार्थ एक कैसे हो सकता है ? अतः पर्यायवाची शब्द के भेद से अर्थ में भेद मानना चाहिये । इस प्रकार समभिरूढ़ नय अर्थ सम्बन्धी अभेद को गौण करके पर्याय-भेद से अर्थ में भेद स्वीकार करता है। समभिरूढ़ नयाभास पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः ॥ ३८॥ ___यथा इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा भिन्नाभिधेया एव, भिन्नशब्दत्वात् , करिकुरङ्गतुरङ्गवदित्यादिः ॥३६॥ अर्थ--एकान्त रूप से पर्याय वाचक शब्दों के वाच्य अर्थ में भेद मानने वाला अभिप्राय समभिरूढ़ नयाभास है। जैसे-इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द भिन्न-भिन्न पदार्थ के वाचक हैं । क्योंकि वे भिन्न-भिन्न शब्द हैं, जैसे करी (हाथी) कुरंग (हिरन ) और तुरंग (घोड़ा) शब्द ॥ . . विवेचन-समभिरूढ़नय पर्याय-भेद से अर्थ में भेद स्वीकार करता है पर अभेद का निषेध नहीं करता, उसे केवल गौण कर देता
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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