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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
ताकी अपेक्षा" है । जातें यह अद्वैतशब्द निषेधपूर्वक अखंड पद है, जैसैं अहेतु शब्द है सो हेतु विना न होय है तैसैं । जहां एक अर्थका वाचक एकपद होय ताकू अखंड पद कहिये सो यहां निषेधपूर्वक द्वैतशब्दका पृथक दोय अर्थ परमार्थभूत नांहीं हैं एक ही अर्थ है । तातें अपना प्रतिपक्षी जो द्वैत ता विना न होय । बहुरि जहां अखरविषाण ऐसा शब्द होय ताकरि अतिप्रसंग नाहीं है। जाते या विषाण शब्दका निषेध है सो खर शब्दकरि सहित भया तब अखंड पद न रह्या खरविषाण शब्द भया सो खंड पद भया तब याका अर्थ किछू वस्तु नाहीं ताका निषेधे भी वस्तु नाहीं ताके समान यह अद्वैत शब्द है नहीं याका तौ प्रतिपक्षी द्वैतशब्द है ताका परमार्थभूत अर्थ विद्यमान है । ऐसे निषेधपूर्वक अखंड पद जो द्वैत ता विना अद्वैत नाहीं है । याहीतैं सामान्यवचन ऐसा है-जो संज्ञावान पदार्थ प्रतिषेध्य कहिये निषेध करने याग्य वस्तु तिस विना प्रतिषेध कहूं नाहीं होय है । जो अखरविषाणकी तरह होय तौ ताका संज्ञावान पदार्थ ही नाहीं तातैं ऐसा शब्द प्रतिषेध्य विना भी होय है । बहुरि कहै कि दूसरेनें मान्या जो अविद्याके कारण द्वैत ताका प्रतिषेधतै अद्वैत सिद्ध होय है तब तेरे यहां द्वैत की सिद्धि कैसैं न होय ? बहुरि अद्वैतवादी कहै-जो हम अविद्याकू वस्तुभूत मानें नाहीं, प्रमाणतै अविद्या सिद्ध होय नाही, यातें द्वैतकी सिद्धि न होय । जो ब्रह्मकू अविद्यावान मानिये तो बड़ा दोष आवै । बहुरि ब्रह्मकू निर्दोष मानिये तौ अविद्याकै अनर्थकपणां आवै । बहुर याकै अविद्या नाहीं है ऐसा अस्तित्व अविद्याका अविद्याहीमैं कल्पिये है । बहुरि यह अविद्या ब्रह्मद्वारे तीसरी है ऐसा कोई प्रकार भी सिद्ध न होय है । बहुरि अनुभवतै अविद्या है ऐसैं ब्रह्म अनुभवसहित होय है । तातै प्रमाणरूप झानतें बाधित अविद्या होय तौ