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देती है । इस प्रतिष्ठा समापन के साथ ही आपके वरद हस्त से समय बाद श्री मुताजी के मन्दिर की प्रतिष्ठा कार्य होने वाला है। हे अनन्य साधक !
आपके चिन्तन प्रधान प्रवचन, सौम्य व्यक्तित्व, मधुर वाणी, गम्भीर प्रकृति और स्नेहसिक्त व्यवहार जैन समाज के रूखे सूखे जीवन को शान्ति, शीतलता और नवजीवन प्रदान करते है। आपका जोधपुर चातुर्मास श्री जैन संघ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जावेगा। ऐसा ऐतिहासिक चातुर्मास यहां पहले कभी नहीं हुआ है। हे धर्मनिष्ठ तपोधन !
आपको जन्म के साथ ही धर्म की वसियत कौटुम्बिक परम्परा के साथ में मिली थी। आपका सम्पूर्ण परिवार ही प्रवज्या के परमपावन पथ पर अग्रसर होकर जैनशासन को अलंकृत करने में सफल रहा है । उसी क्रम में राज थान के सुप्रसिद्ध झीलों व फवारों के नगर उदयपुर में वि० सं० १६८८ मार्गशीर्ष कृष्णा २ को स्व० साहित्य सम्राट् शास्त्र विशारद् प पू० आचार्य भगवान् श्रीमद् विजयलावण्य सूरिश्वरजी म. सा० के पावन कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की । अपने परम गुरुदेव व प्रगुरुदेव की पावन निश्रा में आपने जैन व जैनेतर दर्शन ग्रन्थों का निष्ठा पूर्वक अध्ययन किया व जैन आगमों का विधि पूर्वक योग और अभ्यास किया।
आपने आज दिन तक ६० छोटे बड़े ग्रन्थों का निर्माण व संपादन कार्य किया। वर्तमान में भी आपने साहित्य का सर्जन किया है, वह प्रेस में है तथा शीध्र ही प्रकाशित हो रहा है।