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नयचक्रसार हि० अ०
नित्यताsभावे निरन्वयता कार्यस्य भवति कारणाभावता च भवति अनित्यताया भावे ज्ञायकतादि शक्तेरभावः अर्थक्रि: याऽसंभवः तथा समस्तस्वभाव पर्यायाधारभूतभव्यदेशानां स्वस्वक्षेत्रभेदरूपाणामेकत्वपिंडी रूपापरत्यागः एकस्वभावः ॥ क्षेत्रकालभावानां भिन्नकार्यपरिणामानां भिन्नप्रभावरूपोऽनेकस्वभावः एकत्वाभावे सामान्याभावः । अनेकत्वाभावे विशेष धर्माभावः स्वस्वामित्व व्याप्यव्यापकताप्यभावः
अर्थ – जैसे अस्ति नास्तिपना कहा वैसे ही नित्यता, अनित्यता भी सव द्रव्यों में है. नित्यता, अनित्यता विना कोई द्रव्य नहीं है. अगर द्रव्यमें नित्यता न हो तो कार्य का अन्वय किसको हो ? अर्थात् यह कार्य इस द्रव्यका है ऐसा नहीं कहा जा शक्ता. द्रव्य में नित्यता मानने सेंहीं कार्य का अन्वय होता है, अव जो द्रव्यको केवल नित्यपने हीं मानते हैं तो गुणका कार्य है वह भी द्रव्य का कहावेगा और गुण है वह द्रव्य नहीं है. फिर द्रव्यमें नित्यता के अभाव से कारणपने का अभाव होता है. इस लिये नित्यता माननी चाहिये. और द्रव्य में अनित्यता का अभाव मानने से ज्ञायकतादि गुणरूप शक्तिका द्रव्य में अभाव हो जायगा अर्थक्रिया भी संभव नहीं होती. क्योंकि किसी भी अंसमें अनित्यता मानने से ही अर्थ क्रिया होती है. नवीन कारण से कार्य उत्पन्न होता है. वह पूर्व पर्याय के ध्वंस से ही होता है. एकका ध्वंस और दूसरे नवीन का उत्पाद यही द्रव्य का नित्यानित्यपना है. यह नित्यानित्य स्वभाव कहा ।