________________
स्याद्वाद स्वरूप. . (६९) हुवा है. वही चलन सहकारादि गुणविभाग उपादान कारण है और वही कार्यरूपसे परिणमन होता है. इसी लिये कारणताका व्यय कार्यता का उत्पाद और चलनसहकारीत्व धर्म ध्रुव है. इसी तरह अधर्मास्तिकायमें स्थिर सहाय गुण की प्रवर्तना, आकाशास्तिकाय में अवगाह, गुणकी प्रवर्तना, पुद्गलास्तिकायमें पूरण गलनादि गुणकी प्रवर्तना और जीव द्रव्यमें ज्ञानादि गुण की प्रवर्तना होती है । अनेकान्तजयपताका ग्रन्थमें ऐसा भी लिखा है कि गुणमें प्रतिसमय कारणपना नया नया उत्पन्न होता है. अर्थात् कारणपनेका उत्पाद व्यय है. और कारणवत् कार्यता का भी उत्पाद व्यय होता है. इसी तरह सव द्रव्यों के प्रत्येक गुणमें कार्य कारणता का उत्पाद व्यय होता है यह उत्पाद व्यय की प्रथम व्याख्या कही।
तथाच सर्वेषां द्रव्यागां परिणामिकत्वं पूर्वपर्यायव्ययः नवपर्यायोत्पादः एवमप्युत्पादव्ययौ द्रव्यत्वेन ध्रुवत्वं इति द्वितीयः।
अर्थ--सर्व द्रव्यों में परिणामिकभावसे पूर्वपर्याय का व्यय और नवीन पर्याय का उत्पाद ऐसा उत्पाद व्यय समय २ होता है तथा द्रव्यपने ध्रुव है यह दूसरा भेद कहा ।
प्रतिद्रव्यं स्वकार्यकारणपरिणमनपरावृत्तिगुणप्रवृत्तिरूपापरिणतिः अनन्ता अतीता एका वर्तमाना अन्या अनामता योग्यतारूपास्ता वर्तमाना अतीता भवन्ति अनागता वर्तमाना भवन्ति शेषा अनागता कार्ययोग्यतासनता लभन्ते इत्येवंरूपा