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________________ (६०) नयचक्रसार हि० अ० नित्य बताना हो तो, उसके लिए जैनशास्त्रकारोंने, 'अनित्य' 'नित्य ' या दूसरा कोई शब्द उपयोगमें नहीं आ सकता इस लिए ' प्रवक्तव्य ' शब्दका व्यवहार किया है । यह है भी ठीक । घट जैसे अनित्य रूपसे अनुभवमें आता है उसी तरह नित्य रूपसे भी अनुभवमें आता है । इससे घट जैसे केवल अनित्य रूपमें नहीं ठहरता वैसे ही केवल नित्य रूपमें भी घटित नहीं होता है बल्के वह नित्यानित्यरूप विलक्षण जातिवाला ठहरता है । ऐसी हालतमें यदि यथार्थ रूपमें नित्य और भनित्य दोनों क्रमशः नहीं किन्तु एक ही साथ-बताना हो तो शास्त्रकार कहते हैं कि इस तरह बतानेके लिए कोइ शब्द नहीं है। "* अतः घट प्रवक्तव्य है। • शब्द एक भी ऐसा नहीं है कि जो नित्य और अनित्य दोनों धर्मोको एक ही साथमें, मुख्यतया प्रतिपादन कर सके । इस प्रकारसे प्रतिपादन करनकी शब्दोंमें शक्ति नहीं है । 'नित्यानित्य' यह समासवाकय भी क्रमहीसे नित्य और अनित्य धर्मोंका प्रतिपादन करता है । एक साथ नहीं । "सदुश्चरितं पदं सकदेवार्थ गमयति" अर्थात् एकं पदमेकदैक धर्मावच्छिन्नमेवार्थ बोधयति" इस न्यायसे, "एक शब्द, ऐकवार एक ही धर्मको-एक ही धर्मसे युक्त अर्थको प्रकट करता है " ऐसा अर्थ निकलता है । और ईससे यह समझना चाहिए कि-सूर्य और चन्द्र इन दोर्नोका वाचक पुष्पदंत शब्द ( ऐसे ही अनेक-अर्थ वाले दूसरे शब्द भी ) सूर्य और चन्द्रको क्रमश: बोध कराता है, एक साथ नहीं । ईससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यदि भनित्य-नित्य धर्मोको एक साथ बत्तलानेके लिए कोई नवीन सकितिक शब्द गढा जायगा तो उससे भी काम नहीं चलेगा। - यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी . चाहिए कि एक ही साथमें, मुख्यतासे
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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