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नयचक्रसार हि० अ०
सप्तभंगी।
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ऊपर कहा जा चुका है कि ' स्याद्वाद' भिन्न भिन्न अपेक्षासे अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनेक धर्मोका एक ही वस्तुमें होना बताता है । इससे यह समझमें आ जाता है कि, वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका हो, उसी रीतिसे उसकी विवेचना करनी चाहिए । वस्तुस्वरूपकी जिज्ञासावाले किसीने पूछा कि-" घडा क्या अनित्य है ? " उत्तरदाता यदि इसका यह उत्तर प्रमिति और प्रमेय आकारवाले एक ज्ञानको, जो उन तीन पदार्थोंका प्रति भासरूप है, मंज़र करनेवाला मीमांसक दर्शन और अन्य प्रकार से दूसरे भी स्याद्वादको अर्थतः स्वीकार करते हैं । अन्तमें चार्वाकको भी स्याद्वादकी आहामे बंधना पडा है। जैसे-पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार तस्वोंके सिवा पांचवां तव चार्वाक नहीं मानता । इसलिए चार तखोंसे उत्पन्न होनेवाले चैतन्यको चार्वाक चार तखोंसे अलग नहीं मान सकता हैं।
* " जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् ।
भट्टो वापि मुरारि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ! " प्रबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः।
ब्रवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ " ब्रवाणा भिन्नभिन्नार्थान् नयभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः स्यद्वा दं सार्वत्तान्त्रिकम् ॥ . .
-यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद् । भावार्थ--" जाति और व्यक्ति इन दो रूपोंसे वस्तुको बतानेवाले मह और मुरारि स्याद्वादकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। " "मात्माको व्यव