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________________ (५०) नयचक्रसार हि० अ० जिससे ननि नवीन रूपोंका प्रादुर्भाव होता है। दीपक बुझ गया, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सर्वथा नष्ट हो गया है। दीपकका परमाणु-समूह वैसाका वैसा ही मौजूद है । जिस परमाणु-संघातसे दपिक उत्पन्न हुआ था, वही परमाणु-संघात, दूसरा रूप पा जानेसे, दीपकरूपमें न दीखकर, अंधकार-रूपमें दीखता है; अन्धकार रूपमें उसका अनुभव होता है । सूर्यकी किरणोंसे पानीको सूखा हुआ देखकर, यह नहीं समझ लेना चा. हिए कि पानीका अत्यंत प्रभाव हो गया है । पानी, चाहे किसी रूपमें क्यों न हो, बराबर स्थित है । यह हो सकता है कि, किसी वस्तुका स्थूलरूप नष्ट हो जाने पर उसका सूक्ष्मरूप दिखाई न दे मगर यह नहीं हो सकता कि उसका सर्वथा अभाव ही हो जाय यह सिद्धान्त अटल है कि न कोई मूल वस्तु नवीन उत्पन्न होती है और न किसी मूल वस्तुका सर्वथा नाश ही होता है । दूधसे बना हुआ दही, नवीन उत्पन्न नहीं हुआ । यह दूधहीका परिणाम है। इस बातको सब जानते हैं कि दुग्धरूपसे नष्ट होकर दही रूपमें आनेवाला पदार्थ भी दुग्धहीकी तरह 'गोरस' कहवाता है | अव एव गोरसका त्यागी दुग्ध और दही दोनों चीजें नहीं खा सकता है । इससे दूध और दहीमें जो साम्य है वह अच्छी तरह अनुभवमें आ सकता है। * इसीप्रकार सब जगह समझना चाहिए कि, .... * “पयोतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवत्तः। . प्रगोरसक्तो नोभे तस्माद् वस्तु प्रयात्मकम् ॥ -शास्त्रवार्तासभुच्चय, हरिभद्रसूरि । ।
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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