SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवपर सप्तभंगी. (३७) लघुता - हानिवृद्धि का मान यह स्वकाल है और उत्पादव्यय का भिन्न स्वभाव परिणमन तथा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग, अनन्तउपभोग, अनन्तवीर्य, अनन्त अव्याबाध, अरूपी, अशरीरी, परमक्षमा, परममार्दव, परमआर्जव, स्वरुपभोगी प्रमुख स्व० स्वभाव से अनन्तज्ञेय - ज्ञायकपने जीवद्रव्य अस्ति है । इस तरह जीव का स्वधर्म ज्ञानादि गुण समस्त ज्ञेय ज्ञायकरूप स्वधर्मशक्ति से अनन्त अविभागरूप अर्थात् एकैक पर्याय विभाग में सब अभिलाप्य अनभिलाप्य स्वभावका ज्ञायकपना है. उसको विस्तार से लिखते है - मति, श्रुति, अवधि और मनः पर्यव प्रत्येकज्ञान के विभाग पर्याय जुदे जुड़े हैं. और केवलज्ञानके पर्याय जुड़े हैं. विशेषावश्यक में गणधरवाद के अन्त में कहा है कि जो प्रवर्ण योग्य वस्तु भिन्न है तो उसका आवरण भी भिन्न है. उसको क्षयोपशमादि भेदसे परोक्ष अथवा देश से जाने और सम्पूर्ण आवर्ण के क्षय होने से प्रत्यक्ष रूपसे जानते हैं. परन्तु केवलज्ञान सर्वभावों को प्रत्यक्षदायक है. उसके प्रगट होने से दूसरे ज्ञानकी प्रवृत्ति है परन्तु भिन्नपने प्रकाशित नहीं होती; किन्तु केवलज्ञानका ही जानपना कहा जाता है. किसी आचार्य का मत है कि ज्ञानके अविभाग पर्याय सब एक जाति के हैं, उन अविभागों में वर्णादि जानने की शक्ति अनेक प्रकारकी है. उसीमेंकी जो शक्ति प्रगट होती है उसके. मतिज्ञानादि भिन्न २ नाम है और सब श्रवणों के क्षय होनेसे. एक केवलज्ञान रहता है. छद्मस्थको ज्ञानका भास है इस तरह की व्याख्या भी है ।
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy