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________________ व्य का लक्षण. (९) प्रणमें वह अस्तिरुप द्रव्य समझना. यह लक्षण द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक दोनो नय को ग्रहण कर के कहा है. इसमें ध्रुवपना है वह द्रव्यास्तिक नयग्राही है और उत्पाद व्यय है यह पर्यायास्तिक नयग्राही है. यह वाक्य तत्त्वार्थ सूत्र का है. एक और दूसरा लक्षण भी तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है. एक द्रव्य में स्वकार्य गुणपने वर्तमान वह गुण और पर्याय जो गुण का कारणभूत तथा द्रव्य का भिन्न २ कार्यपने परिणमन. उन द्रव्यगुण दोनों . को स्वाश्रयी परिणमनपने ये दोनो है जिसमें उस को द्रव्य कहते है. अर्थात् गुण तथा पर्याय सहित को द्रव्य कहना, जिस द्रव्य का दो भाग नहो वह द्रव्य का मुख्य लक्षण है बहुत से परमाणुवों के स्कंध को द्रव्य माना है वह उपचार मात्र है परन्तु जिस की परिणति त्रिकाल में भी स्व स्वभाव का त्याग न करे और जो द्रव्य अपनी मूल जाति को न छोडे, जिसका अगुरुलघु षड् गुनहानि वृद्धिरुप चक्र इकठ्ठा फिरे वह एक द्रव्य है. और जिसका पृथक-जुदा हो उसको भिन्न द्रव्य कहना. धर्म, अधर्म, आकाश ये एकएक द्रव्य है. और असंख्यात प्रदेशी जीव एक अखंड द्रव्य है. ऐसे जीव सब लोक में अनन्त है वे जीव सिद्ध में बढ़ते हैं, और संसारीपने में न्यून होते हैं. परन्तु संब जीव संख्या में न्यूनाधिक नहीं होते. पुद्गल परमाणु एक आकाश प्रदेश प्रमाण एक द्रव्य है ऐसे परमाणु सब जीवों से तथा सब जीवों के प्रदेशों से भी अनन्त गुणे द्रव्य है. स्कधं पने तथा छूटा परमाणुपने न्यूनाधिक होते हैं. परन्तु पुद्गल परमाणुपने जो संख्या है उस में न्यूनाधिक नहीं होते. यह निश्चयनय से लक्षण कहा. . .
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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