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नयस्वरूप.
(२९)
किन्तु एक धर्म की मुख्यता स्थापित करनी उसको नय कहते है. इसकी विस्तार पूर्वक व्याख्या की जाय तो नयके अनेक भेद होते हैं. परन्तु संक्षेपसे दो भेद हैं. (१) द्रव्यास्तिक (२) पर्यायास्तिक इनका वर्णन रत्नाकरावतारिका ग्रन्थसे लिखते हैं. “ द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तदेवार्थः सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिक.”
वर्तमानकाल में पर्याय का उत्पादक हैं, भूत-अतीतकाल में उत्पाद-कथाः भवीष्य काल में उत्पादक होगा उसको द्रव्य कहते हैं. उसी अर्थका प्रयोजनपना है जिसमें अर्थात् पर्याय है जन्य
और द्रव्य है जनक तथा द्रव्य है वह ध्रुव है और पर्याय है अध्रुव अर्थात् उत्पाद व्यय रूप उक्तं च ।
“ पर्येति उत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः" जिस पर्यायसे उत्पाद विनासरूप नवीनता प्राप्त हो ऐसे स्वरूपानुयायी को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। उस द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक धर्म को द्रव्य, पर्याय भी कहते हैं।
प्रश्न-द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दो भेद कहे हैं. वैसे तीसरा गुणार्थिक भेद क्यों नहीं कहते ?
उत्तर-इसके लिये रत्नाकारावतारिका में कहा है " गुणस्य पर्याये एवान्तरभूतत्वात् तेन पर्यायार्थिकेनैव तत् सङ्ग्रहात् " अर्थात्-गुण पर्याय में अन्तरभूत है इस लिये पर्यायार्थिक में इस