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नयचक्रसार, हि० अ० निक्षेपः भावनिक्षेपः तत्र नामनिक्षेपो द्विविधः सहजा आरोपजा च, द्रव्यनिक्षेपो द्विविधा आगमतो नोप्रागमतश्च तत्र आगमतः तदर्थज्ञानानुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशसरभव्यशरीर तद्वयतिरिक्तभेदात्रिधा, भावनिक्षेपो द्विविधः
आगमतो नोग्रागमतश्च तद्ज्ञानोपयुक्तः तद्गुणमयश्च वस्तुस्वधर्मयुक्तं तत्र निक्षेपा वस्तुनः स्वपर्यायाः धर्मभेदाः।। . अर्थ-घुद्गल का मेरू प्रमुख अनादि नित्य पर्याय है। जीव की सिद्धावस्था; सिद्धावगाहनादि सादि नित्यपर्याय है । वीर्य के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले भाव, शरीर और अध्यवसाय ये तीनो योग स्थान जिस में कषाय स्थान जो चेतना के क्षयोपशम कषाय के उदय से प्राप्त हुवा और संयम स्थान जो चारित्र का क्षयोपशम परिणामी चेतनादि गुण. ये सब अध्यवसायस्थान सादि सान्त पर्याय हैं. । सिद्धगमनयोग्यता धर्म-भव्य' त्वपर्याय अनादि सान्त है क्यों कि सिद्धता प्रगट होने पर भव्यत्व पर्याय का विनाश होता है इस वास्ते अनादि सान्तपना कहा।
वस्तुस्वपर्यायापेक्षा प्रत्येक वस्तुमें सामान्यरूपसे चार निक्षेप है; विशेषावश्यक भाष्य में कहा है; "चत्तारो वत्थु पज्झाया" इति वचनात् स्वपर्याय कहा है; अनुयोगद्वार में कहा है कि जिस वस्तु में जितने निक्षेप ज्ञान हो उतने कहना कदाचित् विशेष निक्षेपका भाष न हो तो नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव यह चारे निक्षेप अवश्य कहना।
नाम निक्षेप के दो भेद ( १ ) सहजनाम ( २ ) सांकेति