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भव्याभव्य स्वभाव.
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जैसे - अनेक प्रकार से उत्पाद व्यय के परिणमन होते हुवे भी जीवका जीवत्वपना नहीं बदलता ऐसे ही अजीव का अजीत्वपना नहीं पलटता यह सब अभव्य स्वभाव का धर्म है. 1
ये दोनों स्वभाव नहीं मानने से कौन से दोष की उत्पत्ति होती है वह बतलाते हैं. द्रव्य में भव्य स्वभाव नहीं मानने से द्रव्य का जो विशेष गुण. गति सहकार, स्थिति सहकार, अवगाहदान, ज्ञायकता, वर्णादि पंचास्तिकाय के गुण है उन की प्रवृत्ति नहीं होती और विना प्रवृत्ति के कार्य सिद्ध नहीं होती और कार्य सिद्धि विना द्रव्य व्यर्थ है इस लिये भव्य स्वभाव मानना चाहिये ।
अगर द्रव्य में अभवनरूप अभव्य स्वभाव न हो और केवल भवन स्वभाव ही हो तो सब धर्म परिवर्तनरूपता को प्राप्त होवेंगे और एक द्रव्य दुसरे द्रव्य में मिल जायगा तथा द्रव्यत्व, सत्त्व, प्रमेयत्वादि अभव्य धर्म का नाश होता है इस वास्ते द्रव्य में भव्य स्वभाव भी है ।
वचनगोचरा ये धर्मास्ते वक्तव्याः, इतरे अवक्तव्याः । तत्राक्षरा: संख्येयाः तत्सन्निपाता असंख्येयाः तद्गोचरा भावाः भावश्रुतगम्याः अनन्तगुणाः वक्तव्यभावे श्रुताग्रहणत्वापचि अवक्तव्यभावे अतीतानागतपर्यायाणां कारणतायोग्यतारूपाणा-मभवः सर्वकार्याणां निराधारनाऽऽपत्तिश्च सर्वेषां पदार्थानां ये विशेषगुणाश्चलन स्थित्यवगा इसहकारपुर गलनचेतनादयस्ते ---